क्या सिर्फ़ Dying Declaration से किसी को दोषी ठहराया जा सकता है?
जीवन की आखिरी गवाही — सच या संदेह?
Dying Declaration का कानूनी आधार: Section 32(1) का सार
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 32(1) यह कहती है कि — “जब कोई व्यक्ति मृत्यु के कारण अनुपस्थित हो जाता है, तो उसकी मृत्यु के कारणों या परिस्थितियों से संबंधित कोई भी कथन, यदि उसने अपनी मृत्यु से पहले दिया हो, तो वह प्रासंगिक साक्ष्य (relevant evidence) माना जाएगा।”
इसका अर्थ यह है कि — यदि कोई व्यक्ति मरने से पहले कहे कि “मुझे फलां व्यक्ति ने जलाया”, या “मेरी मौत फलां ने कराई”, तो वह बयान अदालत में गवाही की तरह स्वीकार किया जा सकता है।
लेकिन यहां कानून एक सूक्ष्म सीमा भी खींचता है — ऐसा बयान तभी स्वीकार्य होगा जब यह स्वेच्छा से, बिना किसी दबाव, डर या भ्रम के दिया गया हो, और व्यक्ति की मानसिक अवस्था स्थिर हो।
न्यायिक दृष्टिकोण: कब स्वीकार्य है Dying Declaration?
भारत के न्यायालयों ने वर्षों में कई दिशानिर्देश तय किए हैं कि कब और कैसे Dying Declaration को साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
(1) Voluntariness (स्वेच्छा) जरूरी है- यदि बयान पुलिस या रिश्तेदारों के दबाव में दिलवाया गया हो, तो वह मान्य नहीं होगा।
(2) Mental Fitness (मानसिक स्थिति) प्रमाणित हो- मृत व्यक्ति बयान देते समय होश में था या नहीं, यह डॉक्टर द्वारा प्रमाणित किया जाना चाहिए।
(3) Recording Authority (रिकॉर्ड करने वाला अधिकारी)- Dying Declaration ideally Magistrate के सामने लिया जाना चाहिए, परन्तु आपात स्थिति में डॉक्टर, पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति द्वारा भी दर्ज किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट का नवीनतम निर्णय: Sharif Ahmed बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2024)
इस मामले में प्रश्न यह था — “क्या बिना किसी स्वतंत्र साक्ष्य (Independent Evidence) के केवल मृत्युपूर्व बयान के आधार पर किसी व्यक्ति को दोषी ठहराया जा सकता है?” मृत महिला ने अपने बयान में कहा था कि उसके पति ने उसे जलाया। परन्तु अदालत के सामने अन्य कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं था — न कोई चश्मदीद, न कोई फॉरेंसिक पुष्टि।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा: “Dying Declaration अत्यंत महत्वपूर्ण साक्ष्य है, परंतु इसे अंधाधुंध स्वीकार नहीं किया जा सकता। Section 32(1) का उद्देश्य यह नहीं कि हर मृत्युपूर्व कथन को सत्य मान लिया जाए। न्यायालय को यह देखना आवश्यक है कि बयान की परिस्थितियाँ क्या थीं, वह कितना विश्वसनीय है, और क्या कोई बाहरी कारक (external influence) था या नहीं।”
न्यायालय ने यह भी कहा कि — “जहां Dying Declaration पूरी तरह स्पष्ट, संगत और स्वेच्छिक हो — वहां यह अकेले भी दोष सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हो सकता है। परंतु यदि उसमें किसी प्रकार का संदेह है, तो corroboration (पुष्टि) आवश्यक है।”
पूर्ववर्ती निर्णयों का तुलनात्मक विश्लेषण
Khushal Rao v. State of Bombay (1958 SCR 552)- इस ऐतिहासिक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा — “Dying Declaration एक ठोस साक्ष्य हो सकता है यदि वह सत्य और विश्वसनीय हो। इसे corroboration की आवश्यकता नहीं, यदि यह अपने आप में भरोसेमंद है।”
Laxman v. State of Maharashtra (2002)- यहाँ न्यायालय ने माना कि डॉक्टर का प्रमाणपत्र (कि व्यक्ति बयान देने के समय होश में था) आवश्यक नहीं, परन्तु परिस्थितियों से यह स्पष्ट होना चाहिए कि व्यक्ति मानसिक रूप से सक्षम था।
Paniben v. State of Gujarat (1992)- कोर्ट ने 10 दिशानिर्देश दिए कि कब Dying Declaration पर भरोसा किया जा सकता है। इनमें सबसे प्रमुख यह था कि यदि एक से अधिक घोषणाएँ हों, तो वे एक-दूसरे से विरोधाभासी नहीं होनी चाहिए।
व्यावहारिक जाँच: न्यायालय क्या देखता है?
जब किसी मुकदमे में Dying Declaration (मृत्युपूर्व बयान) अदालत के समक्ष आता है, तो न्यायालय का कार्य केवल उसे पढ़ लेना या सुन लेना नहीं होता। अदालत इस बयान की विश्वसनीयता, संगति और स्वेच्छा की बारीक पड़ताल करती है। यह जांच सिर्फ तकनीकी नहीं होती — यह एक तरह का नैतिक मूल्यांकन (Moral Scrutiny) भी है, क्योंकि यहाँ किसी व्यक्ति की अंतिम आवाज़ को न्याय का आधार बनाया जा रहा होता है।
न्यायालय निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं पर गौर करता है:
(a) बयान देने वाले की मानसिक और शारीरिक स्थिति-
किसी भी Dying Declaration की सबसे पहली शर्त होती है — “क्या बयान देने वाला व्यक्ति मानसिक और शारीरिक रूप से इतना सक्षम था कि वह सत्य और सटीक बात कह सके?”
उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति 80% झुलस चुका है या दर्द में होश-होश में है, तो उसके कथन की प्रमाणिकता पर प्रश्न उठता है। इसीलिए अदालतें यह देखती हैं कि क्या डॉक्टर ने यह प्रमाणित किया था कि व्यक्ति बयान देने के समय “fit for statement” था।
(b) बयान की स्वेच्छा (Voluntariness)
न्यायालय यह जांचता है कि क्या बयान किसी दबाव, भय, या प्रेरणा के तहत दिया गया था। कई बार परिवार या पुलिस की मौजूदगी में व्यक्ति से बयान दिलवाया जाता है। यदि ऐसा पाया जाता है कि मृत व्यक्ति को किसी ने यह सुझाव दिया कि “फलाँ ने तुम्हें मारा है, ऐसा बोलो,” तो अदालत ऐसा बयान स्वीकार नहीं करती।
(c) रिकॉर्डिंग का तरीका (Mode of Recording)
कानून में आदर्श स्थिति यह है कि Dying Declaration Magistrate द्वारा दर्ज की जाए। यदि ऐसा न हो सके, तो डॉक्टर, पुलिस अधिकारी या कोई जिम्मेदार व्यक्ति भी इसे दर्ज कर सकता है — लेकिन उस स्थिति में अदालत यह देखती है कि
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क्या बयान लिखित रूप में दर्ज हुआ था या मौखिक रूप में?
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क्या रिकॉर्डिंग के समय बयान देने वाले ने हस्ताक्षर या अंगूठा लगाया?
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क्या बयान दर्ज करने वाले ने शब्दशः (verbatim) लिखा या अपनी भाषा में?
इन सभी पहलुओं से यह तय होता है कि बयान “प्रामाणिक” है या “प्रभावित”।
(d) बयान की संगति और स्पष्टता
अगर बयान में विरोधाभास हो — जैसे व्यक्ति पहले कहे कि “मुझे पति ने जलाया” और बाद में कहे कि “मां ने बचाया, पति भाग गया” — तो अदालत भरोसा नहीं करती। बयान का consistency और clarity सबसे अहम तत्व हैं।
(e) अन्य साक्ष्यों से मेल
हालांकि Dying Declaration अकेला भी पर्याप्त हो सकता है, फिर भी अदालत यह देखती है कि
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क्या फॉरेंसिक रिपोर्ट उससे मेल खाती है?
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क्या घटनास्थल की स्थिति उसके अनुरूप है?
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क्या गवाहों के बयान उससे विरोधाभासी हैं?
यदि बयान का घटनाओं से तार्किक संबंध बनता है, तो अदालत उस पर भरोसा करती है।
आलोचनात्मक दृष्टिकोण: Dying Declaration के खतरे
Dying Declaration जितनी संवेदनशील अवधारणा है, उतनी ही खतरनाक भी बन सकती है अगर इसे बिना विवेक के स्वीकार किया जाए। कानूनी जगत में इसे अक्सर “Double-Edged Sword (दो धार वाली तलवार)” कहा गया है।
(a) झूठे आरोप की संभावना
मृत व्यक्ति कभी-कभी गुस्से, दुख, या गलतफहमी में किसी निर्दोष व्यक्ति का नाम ले सकता है। उदाहरण के लिए, पारिवारिक कलह में व्यक्ति अपने पति या ससुरालवालों को दोषी ठहरा सकता है — जबकि असली कारण हादसा हो सकता है। चूंकि वह व्यक्ति अब जीवित नहीं है, उसके कथन की सच्चाई की पुष्टि नहीं की जा सकती।
(b) रिकॉर्डिंग में त्रुटियाँ
कई बार बयान लेने वाला व्यक्ति (जैसे पुलिस या डॉक्टर) जल्दबाज़ी या भावनात्मक दबाव में कुछ शब्द गलत नोट कर देता है। बाद में वही गलती एक निर्दोष के जीवन को प्रभावित कर देती है।
(c) दबाव और प्रभाव
भारत जैसे समाज में परिवार, समाज और पुलिस का प्रभाव बहुत गहरा होता है। कई बार मृतक से कहा जाता है — “जो कुछ हुआ, सच बता दो, वरना तुम्हारी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी” — ऐसे भावनात्मक माहौल में व्यक्ति किसी नाम को ले सकता है जिसे वह असली अपराधी मानता है, भले ही तथ्य अलग हों।
(d) झूठी घोषणाओं का उदाहरण
कुछ मामलों में अदालतों ने पाया है कि मरने वाले ने जानबूझकर झूठा बयान दिया था ताकि किसी विशेष व्यक्ति को फंसाया जा सके। ऐसे ही मामलों में अदालतों ने कहा कि — “Dying Declaration की पवित्रता पर अंधा विश्वास नहीं किया जा सकता; यह मानव भावनाओं और परिस्थितियों के अधीन है।”
इसलिए, यह आवश्यक है कि अदालतें हर ऐसे बयान को तथ्यात्मक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से परखें।
मानवाधिकार और न्याय के बीच संतुलन
इसलिए न्यायालय को यहाँ दो मूल सिद्धांतों के बीच संतुलन बनाना होता है:
(a) Victim Justice बनाम Accused’s Right to Fair Trial
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मृत व्यक्ति की बात को सुनना Victim Justice का हिस्सा है।
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लेकिन आरोपी को भी निष्पक्ष सुनवाई (Fair Trial) का अधिकार है।
न्यायालय को यह सुनिश्चित करना होता है कि मृत व्यक्ति की आवाज़ सुनी जाए, परन्तु आरोपी को बिना पर्याप्त साक्ष्य के दंडित न किया जाए।
(b) न्यायिक विवेक की भूमिका
Dying Declaration के मामलों में न्यायालय का विवेक ही सबसे बड़ी गारंटी है। जज को यह निर्णय लेना होता है कि क्या यह बयान सत्य प्रतीत होता है? क्या यह बाहरी दबाव से मुक्त है? क्या इसका घटनाओं से तार्किक संबंध है?कई बार अदालतें कहती हैं — “कानून का उद्देश्य मृत व्यक्ति की हर आवाज़ को न्याय देना नहीं, बल्कि हर न्याय को सत्य बनाना है।”
(c) मानवाधिकार दृष्टि से
अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सिद्धांत (जैसे Article 14 of ICCPR) कहते हैं कि — किसी व्यक्ति को तब तक दोषी नहीं माना जा सकता जब तक उसका अपराध प्रमाणित न हो जाए। इसलिए, Dying Declaration को भी उसी कसौटी पर परखा जाना चाहिए जिस पर अन्य साक्ष्य परखे जाते हैं।
न्याय की कसौटी पर मृत्युपूर्व बयान
Dying Declaration एक “last echo of truth” मानी जाती है — एक ऐसी गवाही, जो किसी के मरने से पहले की आत्मा की पुकार होती है। लेकिन न्याय की दृष्टि में हर पुकार सत्य नहीं होती, इसलिए कानून ने विवेक का दरवाज़ा खुला रखा है।
मुख्य निष्कर्ष:
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Dying Declaration एक महत्वपूर्ण साक्ष्य है, परंतु यह हर बार निर्णायक नहीं होता।
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यदि यह बयान स्पष्ट, संगत और स्वेच्छिक है, तो यह अकेले भी दोष सिद्ध कर सकता है।
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यदि बयान में विरोधाभास, दबाव या संदेह हो, तो corroboration आवश्यक है।
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न्यायालय को हमेशा यह देखना होगा कि क्या न्याय और मानवाधिकार दोनों की रक्षा हो रही है।
इसलिए कहा जा सकता है — “Dying Declaration कानून का सत्य नहीं, बल्कि न्याय का संकेतक है। यह मार्ग दिखाता है, मंज़िल नहीं तय करता।”
