Bombay HC on 18-Year-Old Voter Enrollment: लोकतंत्र और प्रशासन के बीच संतुलन
अदालत की चेतावनी और लोकतांत्रिक बहस
नवंबर 2025 में, बंबई उच्च न्यायालय (Bombay High Court) ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की — “यदि 18 वर्ष की उम्र पूरी करते ही हर नागरिक को स्वतः मतदाता सूची में शामिल करने का प्रावधान किया जाए, तो इससे चुनाव आयोग और स्थानीय प्रशासन पर अत्यधिक बोझ पड़ेगा।”
यह टिप्पणी उस याचिका के दौरान दी गई, जिसमें एक सामाजिक कार्यकर्ता ने चुनाव आयोग (ECI) से यह मांग की थी कि जो भी नागरिक 18 वर्ष के हो जाएं, उन्हें स्वतः मतदाता सूची में जोड़ा जाए, न कि उन्हें पंजीकरण के लिए अलग से आवेदन करना पड़े। याचिकाकर्ता का तर्क था कि मताधिकार (Right to Vote) लोकतंत्र का बुनियादी अंग है, और 18 वर्ष की उम्र पूरी होते ही यह अधिकार स्वचालित रूप से लागू होना चाहिए।
अदालत ने इस याचिका पर विचार करते हुए यह स्वीकार किया कि नागरिकों का मताधिकार अत्यंत महत्वपूर्ण है, लेकिन साथ ही यह भी रेखांकित किया कि प्रशासनिक क्षमता (Administrative Feasibility) और संसाधन सीमाएँ (Resource Constraints) को नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता। न्यायमूर्ति ने यह स्पष्ट किया कि चुनाव आयोग पहले से ही प्रतिवर्ष करोड़ों मतदाताओं के पंजीकरण, संशोधन और सत्यापन जैसे कार्यों से जूझ रहा है। यदि प्रत्येक व्यक्ति के 18 वर्ष पूरा करते ही उसका डेटा जोड़ने की बाध्यता कर दी जाए, तो यह व्यवस्था “practically unmanageable” हो जाएगी।
यह टिप्पणी एक गहरी संवैधानिक और नीतिगत बहस को जन्म देती है — क्या वोटर पंजीकरण का अधिकार (Voter Registration Right) एक तत्काल अधिकार होना चाहिए, जैसे ही व्यक्ति 18 वर्ष का हो? या फिर, क्या प्रशासनिक और तकनीकी सीमाओं के कारण इसमें एक निर्धारित प्रणाली (qualifying dates) बनाए रखना अधिक व्यावहारिक है?
आज जब भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, और लगभग हर वर्ष 1.8 करोड़ से अधिक नागरिक 18 वर्ष की उम्र में प्रवेश करते हैं, तब यह सवाल और भी प्रासंगिक हो जाता है। अदालत की यह टिप्पणी केवल एक तकनीकी मुद्दा नहीं है — यह लोकतांत्रिक सहभागिता बनाम प्रशासनिक व्यवहार्यता के बीच के संतुलन की परीक्षा है।
भारत में मतदाता नामांकन की मौजूदा व्यवस्था
भारत में मतदाता पंजीकरण (Voter Enrollment) की प्रक्रिया Representation of the People Act, 1950 (RPA, 1950) और Election Commission of India (ECI) के दिशानिर्देशों द्वारा संचालित होती है।
(क) कानूनी आधार: RPA, 1950 की धारा 19 (Section 19) यह निर्धारित करती है कि— “हर वह व्यक्ति जो भारत का नागरिक है, जिसकी आयु 18 वर्ष या उससे अधिक है, और जो संबंधित निर्वाचन क्षेत्र में सामान्य निवासी (ordinarily resident) है, वह मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने के लिए पात्र होगा।”
यहाँ “पात्र” (eligible) होने का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति स्वतः ही सूची में जुड़ जाएगा; उसे नामांकन के लिए आवेदन (Application for Inclusion) करना आवश्यक होता है।
धारा 23(1) आगे कहती है कि पात्र व्यक्ति Form-6 भरकर नाम जुड़वाने के लिए आवेदन कर सकता है, और यह कार्य Booth Level Officer (BLO) के सत्यापन के बाद ही पूरा होता है।
(ख) पात्रता की तिथि (Qualifying Date):
चुनाव आयोग ने यह व्यवस्था की है कि हर वर्ष चार “qualifying dates” तय की जाती हैं: 1 जनवरी, 1 अप्रैल, 1 जुलाई और 1 अक्टूबर। यदि कोई नागरिक इन तिथियों में से किसी पर 18 वर्ष का हो चुका है, तो वह उसी चक्र में नामांकन के योग्य होता है। यदि कोई व्यक्ति 2 जनवरी को 18 वर्ष का होता है, तो उसे अगली qualifying date तक प्रतीक्षा करनी होती है।
(ग) आवेदन की प्रक्रिया:
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नागरिक NVSP (National Voters Service Portal) या Voter Helpline App के माध्यम से ऑनलाइन आवेदन कर सकता है।
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Form 6 के साथ आयु प्रमाण (Age Proof) और निवास प्रमाण (Address Proof) लगाना आवश्यक है।
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इसके बाद BLO द्वारा भौतिक सत्यापन (physical verification) किया जाता है।
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नाम जुड़ने के बाद मतदाता को EPIC (Voter ID card) प्राप्त होता है।
(घ) वर्तमान व्यवस्था के पीछे का तर्क:
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प्रशासनिक एकरूपता (Uniformity) — एक निश्चित तिथि रखने से पूरे देश में डेटा अपडेट एक साथ किया जा सकता है।
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सत्यापन की सरलता — BLO एक तय चक्र में कार्य कर सकते हैं।
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वित्तीय और मानव संसाधन सीमाएँ — यदि प्रतिदिन लाखों आवेदन आने लगें, तो चुनाव आयोग की व्यवस्था असंतुलित हो सकती है।
हालांकि, इस प्रणाली की एक आलोचना यह है कि यह “birthday-based eligibility” के सिद्धांत से मेल नहीं खाती। एक व्यक्ति जो 2 जनवरी को 18 वर्ष का हुआ, उसे वोट डालने का अधिकार पाने के लिए कई महीने प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है, जबकि दूसरा व्यक्ति जो 31 दिसंबर को 18 का हुआ, वह तुरंत पात्र हो जाता है। यह स्थिति कई बार नागरिकों को यह महसूस कराती है कि उनके अधिकारों में देरी (Delay in Rights) हो रही है — और यही याचिका का मूल प्रश्न था, जिस पर बंबई उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की।
संवैधानिक और कानूनी विश्लेषण: अधिकार, सीमाएँ और संतुलन
(क) मताधिकार का संवैधानिक आधार
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 326 कहता है कि— “लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए चुनाव सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार (Universal Adult Suffrage) के आधार पर होंगे।”
(ख) वोट का अधिकार: मौलिक नहीं, विधिक अधिकार
सुप्रीम कोर्ट ने Jyoti Basu vs Debi Ghosal (AIR 1982 SC 983) में स्पष्ट कहा कि—
“Right to vote is neither a fundamental nor a common law right; it is purely a statutory right.”
(ग) क्या तत्काल नामांकन न होना अनुच्छेद 14 (समानता) का उल्लंघन है?
याचिकाकर्ता का तर्क था कि जो व्यक्ति 18 वर्ष का हो चुका है, उसे अगले “qualifying date” तक प्रतीक्षा कराना अनुच्छेद 14 (Right to Equality) का उल्लंघन है। क्योंकि इससे दो समान नागरिकों में असमानता उत्पन्न होती है — एक को तत्काल नामांकन, दूसरे को महीनों बाद।
(घ) न्यायपालिका की भूमिका और सीमाएँ
“Courts must exercise restraint in interfering with electoral processes unless there is a clear violation of constitutional or statutory provisions.”
बंबई हाईकोर्ट ने भी यही रुख अपनाया। अदालत ने कहा कि यदि नागरिकों के अधिकारों और प्रशासनिक व्यवहार्यता के बीच संतुलन बनाना है, तो यह कार्य संसद और चुनाव आयोग का है, न कि न्यायालय का।
(ङ) व्यावहारिकता बनाम आदर्शवाद का संतुलन
कानून और नीति के बीच अक्सर यह द्वंद्व देखा जाता है — क्या व्यवस्था को अधिकार-केन्द्रित (rights-centric) होना चाहिए या व्यावहारिक (pragmatic)?
यदि हर नागरिक के 18 वर्ष पूरा करते ही उसे स्वतः मतदाता सूची में जोड़ा जाए, तो यह लोकतांत्रिक दृष्टि से आदर्श होगा। लेकिन प्रशासनिक रूप से, यह real-time data verification की चुनौती पैदा करेगा। भारत जैसे विशाल और विविध देश में, जहाँ लाखों नागरिकों के पास स्थायी पते का अभाव है, वहाँ यह नीति बिना ठोस डिजिटल ढाँचे के असफल हो सकती है।
इसलिए अदालत ने कहा — “अधिकारों का विस्तार तभी सार्थक है जब उसे लागू करने की संस्थागत क्षमता मौजूद हो।”
यह दृष्टिकोण संविधान के अनुच्छेद 38 (राज्य का कर्तव्य — सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय को बढ़ावा देना) से मेल खाता है, जहाँ “व्यवहारिक न्याय” की अवधारणा शामिल है।
व्यावहारिक चुनौतियाँ और प्रशासनिक दृष्टिकोण
भारत का निर्वाचन तंत्र (Election System) दुनिया में सबसे बड़ा और जटिल लोकतांत्रिक ढांचा है। हर चुनाव में 90 करोड़ से अधिक मतदाता मतदान करते हैं, जिनका डेटा लगातार अपडेट करना चुनाव आयोग (ECI) और स्थानीय प्रशासन के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य है।
(क) 18 वर्ष के नए मतदाताओं की संख्या
केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (CSO) के अनुसार, भारत में हर वर्ष औसतन 1.8 से 2 करोड़ नागरिक 18 वर्ष की उम्र पूरी करते हैं। यदि हर नागरिक के 18 वर्ष का होते ही स्वतः नामांकन की व्यवस्था की जाए, तो इसका अर्थ होगा कि प्रतिदिन लगभग 50,000–60,000 नए पंजीकरण पूरे देश में होने लगेंगे। यह निरंतर प्रक्रिया न केवल तकनीकी दृष्टि से कठिन है, बल्कि संसाधन (resources), सत्यापन (verification) और डेटा-सुरक्षा (data security) के दृष्टिकोण से भी बेहद जटिल है।
(ख) डेटा सत्यापन और फर्जी प्रविष्टियों का खतरा
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एक ही व्यक्ति के कई पते पर नाम जुड़ने का खतरा रहेगा।
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Duplicate entries या bogus voters की संख्या बढ़ सकती है।
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कई नागरिक ऐसे भी होंगे जिनके पास वैध दस्तावेज़ नहीं हैं या उनका स्थायी निवास बदलता रहता है (जैसे छात्र, प्रवासी मजदूर)।
इसी कारण चुनाव आयोग “field verification” की प्रक्रिया अपनाता है ताकि सूची शुद्ध बनी रहे।
(ग) संसाधन और तकनीकी सीमाएँ
चुनाव आयोग के पास सीमित जनशक्ति है। प्रत्येक BLO को सैकड़ों घरों का सर्वे करना होता है। यदि यह प्रक्रिया रोज़ाना आधार पर करनी पड़े, तो स्थानीय प्रशासन का कार्य असंतुलित हो जाएगा। इसके अलावा, देश के अनेक हिस्सों में:
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इंटरनेट कनेक्टिविटी की समस्या,
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दस्तावेज़ी असंगति,
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और तकनीकी प्रशिक्षण की कमीभी बड़ी बाधाएँ हैं।
(घ) “Continuous Enrollment” का जोखिम
अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि यदि नामांकन सतत (continuous) रूप से चलेगा, तो:
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मतदाता सूची स्थिर (frozen) नहीं रह पाएगी।
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चुनाव की तैयारी — जैसे मतदाता पहचान पत्र छपवाना, बूथों का निर्धारण, कर्मचारी तैनाती — प्रभावित होंगे।
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हर महीने बदलते डेटा के कारण पारदर्शिता में भी समस्या आ सकती है।
इसलिए अदालत ने माना कि समान “qualifying dates” प्रणाली ही फिलहाल सबसे उपयुक्त और व्यवहार्य विकल्प है।
नीतिगत विश्लेषण और संभावित समाधान
यद्यपि अदालत का दृष्टिकोण प्रशासनिक रूप से उचित है, फिर भी यह जरूरी है कि नीति निर्माताओं और चुनाव आयोग को यह सोचने की आवश्यकता है कि कैसे युवाओं को जन्म के तुरंत बाद लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल किया जा सके, बिना प्रशासनिक बोझ बढ़ाए।
(क) पूर्व-पंजीकरण प्रणाली (Pre-Registration Model)
कई विकसित लोकतंत्रों — जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया — में pre-registration system अपनाया गया है। इसमें नागरिक 17 वर्ष की उम्र में ही पंजीकरण कर सकता है, और 18 वर्ष पूरा होते ही उसका नाम स्वतः सक्रिय (activated) हो जाता है।
भारत में भी इस तरह की व्यवस्था पर विचार किया जा सकता है:
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17 वर्ष की उम्र से “pre-registration window” खोली जाए।
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जन्म प्रमाणपत्र (birth certificate) और आधार डेटा से आयु स्वतः सत्यापित की जा सके।
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इस डेटा को ECI और UIDAI के साथ एकीकृत किया जा सकता है।
इससे प्रशासन को पर्याप्त समय मिलेगा और नागरिक भी अपने अधिकार के प्रति जागरूक होंगे।
(ख) डिजिटल Birth-ECI Integration Model
भारत में अब लगभग हर जन्म Civil Registration System (CRS) में दर्ज होता है। यदि इस प्रणाली को ECI के साथ जोड़ा जाए, तो जब कोई नागरिक 18 वर्ष का होगा, तो उसे स्वतः एक notification भेजा जा सकता है कि “आप अब वोटर सूची में नाम जोड़ने के पात्र हैं।” यह सूचना SMS, ईमेल या DigiLocker के माध्यम से भेजी जा सकती है।
इससे:
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नागरिकों को समय रहते जानकारी मिलेगी।
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ECI को पूर्व-सत्यापित डेटा मिलेगा।
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और त्रुटिपूर्ण प्रविष्टियों की संभावना घटेगी।
(ग) चरणबद्ध नामांकन प्रणाली (Phased Enrollment)
एक और व्यावहारिक समाधान यह हो सकता है कि चुनाव आयोग मासिक या त्रैमासिक (quarterly) आधार पर नामांकन की प्रक्रिया अपनाए, ताकि किसी को लंबी प्रतीक्षा न करनी पड़े।
उदाहरण के लिए:
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यदि कोई व्यक्ति 5 फरवरी को 18 वर्ष का होता है, तो उसे मार्च या अप्रैल में नाम जोड़ने की अनुमति मिल जाए।
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इससे प्रशासन पर बोझ भी सीमित रहेगा और नागरिकों की संतुष्टि भी बढ़ेगी।
(घ) युवा मतदाता जागरूकता अभियान
इसलिए:
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स्कूलों और कॉलेजों में Voter Awareness Clubs बनाए जाएँ।
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“Mera Pehla Vote Desh Ke Liye” जैसे अभियान को डिजिटल रूप में आगे बढ़ाया जाए।
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हर जिले में एक Youth Voter Facilitation Centre हो जो युवाओं की मदद करे।
(ङ) संसदीय समिति और नीति पुनरावलोकन
अदालत ने भले यह कहा हो कि यह नीति-निर्माण का विषय है, परंतु संसद को चाहिए कि वह इस मुद्दे पर एक संयुक्त समिति (Joint Parliamentary Committee) बनाए जो:
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ECI, UIDAI, शिक्षा मंत्रालय और राज्य निर्वाचन अधिकारियों से परामर्श करे।
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और “Automatic or Phased Voter Enrollment” की संभावनाओं पर ठोस रिपोर्ट प्रस्तुत करे।
इससे न केवल लोकतांत्रिक प्रक्रिया अधिक समावेशी बनेगी, बल्कि युवाओं में लोकतंत्र के प्रति विश्वास भी मजबूत होगा।
प्रभाव: नागरिकों, चुनाव आयोग और लोकतंत्र पर परिणाम
(क) युवाओं के लिए निहितार्थ
(ख) चुनाव आयोग के लिए निहितार्थ
(ग) लोकतंत्र पर व्यापक प्रभाव
बंबई उच्च न्यायालय का निर्णय केवल एक प्रशासनिक टिप्पणी नहीं है, बल्कि यह एक गहरा नीति-संकेत (policy signal) है। अदालत ने नागरिकों के अधिकारों और प्रशासनिक व्यावहारिकता — दोनों के बीच संतुलन साधने की आवश्यकता पर बल दिया है।
भारत में लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिए यह आवश्यक है कि:
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संसाधन-सक्षम प्रणाली विकसित की जाए,
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डिजिटल एकीकरण को बढ़ावा मिले,
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और युवा मतदाताओं को प्रोत्साहित किया जाए।
अधिकार तभी सार्थक हैं जब उनका प्रभावी उपयोग संभव हो। इसलिए, नीति निर्माताओं को इस दिशा में आगे बढ़ते हुए pre-registration, quarterly enrollment और digital linkage जैसे उपायों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
लोकतंत्र की असली ताकत केवल मतदान की तारीख में नहीं, बल्कि उस दिन के लिए हर नागरिक की तैयारी में छिपी है।
