सुप्रीम कोर्ट का फैसला: नाबालिग के निजी अंगों को छूना बलात्कार नहीं बल्कि यौन उत्पीड़न — एक सामाजिक और वैधानिक विश्लेषण
बाल सुरक्षा के प्रश्न पर न्याय और संवेदना का संघर्ष
भारत जैसे लोकतांत्रिक और सांस्कृतिक रूप से विविध देश में बच्चों की सुरक्षा और गरिमा केवल एक कानूनी मुद्दा नहीं, बल्कि नैतिक जिम्मेदारी भी है। बच्चों की हँसी, उनका खेलना और उनका निश्चिंत रहना किसी भी समाज की सभ्यता का सबसे बड़ा सूचक होता है। लेकिन जब कोई बच्चा यौन शोषण का शिकार होता है, तो यह केवल एक व्यक्ति पर किया गया अपराध नहीं होता, बल्कि पूरी सामाजिक व्यवस्था की असफलता का संकेत होता है।
इसी पृष्ठभूमि में 2012 में भारत सरकार ने Protection of Children from Sexual Offences Act (POCSO) लागू किया था — जिसका उद्देश्य था बच्चों को हर प्रकार की यौन हिंसा, उत्पीड़न और शोषण से कानूनी सुरक्षा प्रदान करना। इस अधिनियम ने भारत में बाल सुरक्षा की दिशा में ऐतिहासिक परिवर्तन लाया। लेकिन समय के साथ-साथ इसकी न्यायिक व्याख्या ने कई नए प्रश्न भी खड़े किए हैं।
हाल ही में "सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा कि “यदि कोई व्यक्ति किसी नाबालिग के निजी अंगों को छूता है, परंतु प्रवेश (penetration) नहीं करता, तो यह बलात्कार नहीं बल्कि ‘sexual assault’ है।” यह फैसला कानूनी रूप से सूक्ष्म, पर सामाजिक रूप से गहराई से विवादास्पद है।"
इस निर्णय ने हमें यह सोचने पर विवश कर दिया है कि कानून और समाज के बीच “अपराध” की समझ में कितना अंतर है। इस लेख का उद्देश्य यही है — कि हम इस निर्णय को केवल कानूनी रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और मानवीय परिप्रेक्ष्य में समझें।
POCSO अधिनियम की पृष्ठभूमि और उद्देश्य: बच्चों के अधिकारों की रक्षा की कानूनी यात्रा
भारत में 2012 से पहले बाल यौन शोषण के मामलों के लिए कोई विशेष कानून नहीं था। ऐसे अपराधों को भारतीय दंड संहिता (IPC) की सामान्य धाराओं के अंतर्गत देखा जाता था — जैसे धारा 354 (महिला की अस्मिता का अपमान) या धारा 377 (अप्राकृतिक अपराध)। लेकिन ये धाराएँ बच्चों की विशिष्ट परिस्थितियों और मानसिक स्थिति को ध्यान में नहीं रखती थीं।
संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार संधि (UN Convention on the Rights of the Child – CRC) पर हस्ताक्षर करने के बाद भारत पर यह अंतरराष्ट्रीय दायित्व आया कि वह बच्चों के यौन शोषण को रोकने के लिए विशेष कानून बनाए। इसी के परिणामस्वरूप POCSO अधिनियम पारित हुआ।
इस कानून की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें “child-friendly procedures” को कानूनी रूप से मान्यता दी गई। उदाहरण के तौर पर, बच्चे का बयान महिला अधिकारी द्वारा लिया जाए, अदालत में बच्चों की पहचान गोपनीय रखी जाए, और न्याय प्रक्रिया में उन्हें पुनः आघात (re-traumatisation) से बचाया जाए।
हालिया निर्णय का सार और न्यायिक तर्क
न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति एस.वी. भट ने अपने निर्णय में कहा —
“POCSO का उद्देश्य सभी प्रकार के यौन अपराधों को संबोधित करना है, लेकिन कानून में अपराधों के बीच भेद आवश्यक है ताकि दंड उसी के अनुरूप दिया जा सके।”
सामाजिक यथार्थ और बाल यौन शोषण की जमीनी सच्चाई
भारत में हर वर्ष हजारों बच्चे यौन हिंसा का शिकार होते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के 2023 के आँकड़ों के अनुसार, देश में बच्चों के खिलाफ अपराधों में से लगभग 38% मामले यौन उत्पीड़न से जुड़े हैं। परंतु वास्तविकता इससे कहीं भयावह है क्योंकि अधिकांश मामले दर्ज ही नहीं किए जाते।
सामाजिक शोध यह दर्शाते हैं कि ऐसे अपराधों के पीछे अक्सर अपराधी बच्चे के “विश्वासपात्र” होते हैं — परिवार के सदस्य, शिक्षक, पड़ोसी या मित्र। बच्चे का “trust” ही सबसे बड़ा हथियार बनता है अपराधी के लिए। यही कारण है कि ऐसे मामलों में बच्चे खुलकर बयान नहीं दे पाते।
बाल मनोवैज्ञानिक डॉ. सीमा अग्रवाल कहती हैं —
“बच्चे के लिए अनुचित स्पर्श और बलात्कार दोनों समान रूप से भयावह हैं, क्योंकि उनके लिए यह अनुभव केवल शारीरिक नहीं, मानसिक और भावनात्मक होता है।”
ऐसे मामलों में बच्चे अक्सर भ्रमित रहते हैं — वे समझ नहीं पाते कि उनके साथ जो हुआ, वह गलत था या नहीं। यही कारण है कि कई बच्चे चुप रहते हैं या किसी को कुछ बताते ही नहीं। यही वह सामाजिक यथार्थ है जिसे कानून अपनी परिभाषाओं में समाहित नहीं कर पाता। कानून के लिए अपराध एक शब्दों की व्याख्या है, लेकिन समाज के लिए वह एक जीवंत अनुभव है — दर्द, भय और शर्म का संगम। इसलिए जब सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा कि “केवल छूना बलात्कार नहीं”, तो समाज के एक हिस्से ने इसे बच्चे की भावनाओं को कम आंकने के रूप में देखा।
कानूनी तर्क बनाम सामाजिक संवेदना: न्याय की दो परतें
इस मामले में न्यायालय ने “शब्दों के न्याय” (Justice of Letter) को प्राथमिकता दी, जबकि समाज “भावनाओं के न्याय” (Justice of Spirit) की अपेक्षा कर रहा था।
कानूनी दृष्टि से यह तर्क दिया गया कि यदि हर स्पर्श को बलात्कार कहा जाए तो अपराध की गंभीरता का संतुलन बिगड़ जाएगा। लेकिन सामाजिक दृष्टि से यह निर्णय यह संदेश देता है कि बच्चे का आघात “कानूनी तकनीकीताओं” के बीच विभाजित हो सकता है। यहाँ यह भी समझना आवश्यक है कि कानून और समाज का रिश्ता हमेशा रैखिक (linear) नहीं होता। कानून नियमों का ढांचा है, जबकि समाज भावनाओं, विश्वास और नैतिकता का संयोजन। इसलिए हर कानूनी परिभाषा के साथ एक सामाजिक चेतना जुड़ी होती है।
इस संदर्भ में प्रसिद्ध विधि दार्शनिक H.L.A. Hart की यह बात अत्यंत प्रासंगिक है —
“Law cannot be understood in isolation from the society it governs.”
अर्थात, कानून को उस समाज के संदर्भ में ही समझा जा सकता है जहाँ वह लागू होता है। अगर समाज का मनोवैज्ञानिक ढांचा यह मानता है कि किसी बच्चे को छूना भी यौन हिंसा है, तो कानून को भी उस चेतना के अनुरूप विकसित होना चाहिए।
तुलनात्मक अध्ययन: अन्य देशों के कानून और दृष्टिकोण
बाल यौन उत्पीड़न से संबंधित अपराधों को लेकर दुनिया के अधिकांश देशों ने कड़े कानून बनाए हैं, लेकिन प्रत्येक देश की परिभाषा, व्याख्या और सज़ा की नीति अलग-अलग है। भारत के हालिया निर्णय की अंतरराष्ट्रीय दृष्टि से तुलना करना यह समझने के लिए आवश्यक है कि वैश्विक न्याय व्यवस्था बाल सुरक्षा के प्रश्न को कैसे देखती है।
संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) में बाल यौन अपराधों को दो स्तरों पर विभाजित किया गया है — “sexual contact” और “rape”। वहाँ के अधिकांश राज्यों में यह माना गया है कि यदि कोई व्यक्ति नाबालिग के निजी अंगों को छूता है या यौन इरादे से संपर्क करता है, तो यह “sexual assault” कहलाएगा, चाहे इसमें यौन प्रवेश न हुआ हो। उदाहरण के लिए, Texas Penal Code के अनुसार, किसी भी बच्चे के “intimate parts” को बिना सहमति या अभिभावक की जानकारी के छूना, कठोर अपराध है और इसके लिए न्यूनतम 10 वर्ष की सज़ा निर्धारित है। यह दृष्टिकोण इस विचार पर आधारित है कि बच्चे के शारीरिक स्पर्श से भी गहरा मानसिक आघात उत्पन्न होता है।
यूनाइटेड किंगडम (UK) में Sexual Offences Act, 2003 के तहत “sexual assault” और “rape” को दो अलग कानूनी श्रेणियों में रखा गया है। यूके का कानून इस बात को स्पष्ट करता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी बच्चे को “यौन इरादे से” छूता है, तो यह स्वतः अपराध बनता है, भले ही पीड़ित की ओर से प्रतिरोध न किया गया हो। अदालतें यहाँ यह मानकर चलती हैं कि बच्चे की “consent” कानूनी दृष्टि से मान्य नहीं होती।
ऑस्ट्रेलिया में स्थिति कुछ भिन्न है। वहाँ प्रत्येक राज्य का कानून अलग है, लेकिन समग्र रूप से यह माना गया है कि यदि अपराधी ने नाबालिग को यौन भाव से छुआ या अनुचित व्यवहार किया, तो उसे “sexual assault” कहा जाएगा। परंतु ऑस्ट्रेलियाई न्यायालय ऐसे मामलों में केवल अपराध की प्रकृति नहीं देखते, बल्कि पीड़ित की मनोवैज्ञानिक स्थिति को भी अहम मानते हैं। अदालत यह देखती है कि घटना के बाद बच्चे के व्यवहार, नींद, सामाजिक संपर्क और आत्मविश्वास पर कितना असर पड़ा।
कनाडा में Criminal Code, Section 271 में “sexual interference” नामक अपराध की परिभाषा दी गई है, जिसमें किसी नाबालिग को छूना या यौन इरादे से संपर्क करना भी कठोर दंडनीय है। वहाँ प्रवेश (penetration) की आवश्यकता नहीं होती। कनाडा की न्यायिक व्यवस्था इस बात पर केंद्रित है कि अपराधी का इरादा क्या था और पीड़ित को कितना मनोवैज्ञानिक नुकसान हुआ। कई मामलों में वहाँ की अदालतों ने ऐसे अपराधों में दस से पंद्रह वर्ष तक की सज़ा सुनाई है।
इन सभी देशों के उदाहरण यह दर्शाते हैं कि अधिकांश न्यायालय “touching” को भी यौन अपराध की गंभीर श्रेणी में मानते हैं। भारत में भी POCSO अधिनियम इसी वैश्विक सोच से प्रेरित था, लेकिन न्यायिक व्याख्या ने इसे सीमित अर्थ में लिया। यदि भारत अन्य देशों की तरह मानसिक आघात को भी “यौन हिंसा” की परिभाषा में जोड़ दे, तो यह कानून और अधिक पीड़ित-केंद्रित हो सकता है।
निर्णय का प्रभाव और सामाजिक आलोचना
सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने एक व्यापक बहस को जन्म दिया। एक ओर न्यायविदों ने कहा कि अदालत ने कानून की शाब्दिक व्याख्या को सही ठहराया, क्योंकि “penetration” बलात्कार की कानूनी परिभाषा का आवश्यक घटक है। लेकिन दूसरी ओर बाल अधिकार कार्यकर्ताओं, मनोवैज्ञानिकों और सामाजिक वैज्ञानिकों ने इसे बच्चों के हित के विपरीत बताया।
कई विशेषज्ञों ने कहा कि यह फैसला न्याय के मानवीय पक्ष की उपेक्षा करता है। बच्चों के लिए शारीरिक और मानसिक सीमाएँ बहुत नाज़ुक होती हैं। वे यह नहीं समझ पाते कि “छूना” और “बलात्कार” में क्या फर्क है — उनके लिए दोनों ही अनुभव गहरे भय, शर्म और अपराधबोध का कारण बनते हैं।
इस निर्णय का एक और दुष्परिणाम यह है कि अपराधी यह सोच सकते हैं कि यदि वे केवल “छूने” तक सीमित रहें तो सज़ा अपेक्षाकृत कम होगी। यह सोच बाल सुरक्षा के पूरे ढांचे को कमजोर कर सकती है।
साथ ही, यह भी देखा गया कि समाज में यौन अपराधों के प्रति संवेदनशीलता अब भी सीमित है। परिवार, विद्यालय और समुदाय इस विषय पर खुलकर बातचीत नहीं करते। ऐसे में, यह निर्णय एक चेतावनी की तरह है कि हमें बच्चों के अनुभवों को केवल कानूनी श्रेणियों में नहीं, बल्कि उनके भावनात्मक प्रभावों में भी मापना चाहिए।
भविष्य के लिए सुधार और नीति सुझाव
भारत में बाल सुरक्षा को सुदृढ़ करने के लिए केवल कानूनों में संशोधन पर्याप्त नहीं होगा, बल्कि सामाजिक और प्रशासनिक ढांचे में व्यापक सुधार की आवश्यकता है।
सबसे पहले, POCSO Act में यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि “touch-based sexual assault” को भी गंभीर अपराध की श्रेणी में रखा जाए। इसमें दंड की न्यूनतम सीमा बढ़ाई जा सकती है ताकि संदेश जाए कि हर प्रकार का यौन आचरण अस्वीकार्य है।
दूसरा, पुलिस और न्यायपालिका को बच्चों के मामलों में विशेष प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। कई बार जाँच अधिकारी बच्चों से पूछताछ करते समय असंवेदनशील भाषा का प्रयोग करते हैं, जिससे बच्चे दोबारा आघात झेलते हैं। child-friendly police rooms और special child prosecutors की नियुक्ति से यह स्थिति सुधर सकती है।
तीसरा, विद्यालय स्तर पर यौन शिक्षा (sex education) को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। बच्चों को यह समझना सिखाया जाए कि “good touch” और “bad touch” क्या है, और अगर कोई अनुचित व्यवहार करे तो कैसे प्रतिक्रिया दें।
चौथा, सामाजिक जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए ताकि माता-पिता, शिक्षक और समुदाय यह समझें कि बच्चों के यौन अधिकार भी मानवाधिकार का हिस्सा हैं।
पाँचवाँ, पीड़ित पुनर्वास नीति को मजबूत किया जाए। कई बच्चे वर्षों तक मानसिक आघात से जूझते हैं। इसके लिए प्रत्येक ज़िले में “child counselling centres” स्थापित किए जा सकते हैं जहाँ उन्हें मनोवैज्ञानिक और कानूनी सहायता मुफ्त में मिले।
अंततः, शोध और डेटा संग्रह को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। भारत में अभी भी बाल यौन अपराधों पर पर्याप्त शोध नहीं हुआ है। यदि विश्वविद्यालय और शोध संस्थान इस दिशा में काम करें, तो नीति निर्धारण अधिक सटीक और संवेदनशील हो सकेगा।
सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय कानूनी दृष्टि से भले स्पष्टता प्रदान करता हो, परंतु सामाजिक न्याय के संदर्भ में यह एक चुनौती भी प्रस्तुत करता है। बच्चे के लिए हर प्रकार का अनुचित स्पर्श एक हिंसा है — चाहे उसमें प्रवेश हुआ हो या नहीं। इसलिए यह आवश्यक है कि न्यायपालिका, सरकार और समाज — तीनों मिलकर कानूनों की व्याख्या को मानवीय दृष्टि से देखें।
यदि भारत को वास्तव में बाल सुरक्षा के क्षेत्र में वैश्विक मानक स्थापित करने हैं, तो उसे यह स्वीकार करना होगा कि “touch भी trauma है।”
