न्याय का अर्थ केवल कानून नहीं, समाज की आत्मा भी है
भारत की न्याय प्रणाली केवल विधानों की व्याख्या करने वाली संस्था नहीं है; वह समाज के बदलते मूल्यों, परंपराओं और सांस्कृतिक विविधताओं की रक्षक भी है। इसी दृष्टि से हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय का एक महत्वपूर्ण निर्णय आया है, जिसमें दो न्यायाधीशों — न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा — की पीठ ने यह दोहराया कि “हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (Hindu Succession Act, 1956) अनुसूचित जनजातियों (Scheduled Tribes) पर लागू नहीं होता।” यह फैसला केवल एक तकनीकी कानूनी व्याख्या नहीं है, बल्कि यह भारत की संविधानिक संरचना में निहित सांस्कृतिक विविधता और स्वायत्तता के सम्मान का प्रतीक है। यह निर्णय इस प्रश्न को भी पुनर्जीवित करता है कि क्या एक समान कानून सभी समुदायों पर समान रूप से लागू होना चाहिए, या फिर भारत जैसे विविध देश में अलग-अलग परंपराओं के लिए अलग न्यायिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
1. हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
1.1 अधिनियम का उद्देश्य और पृष्ठभूमि-स्वतंत्रता के बाद भारत में सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक थी — व्यक्तिगत कानूनों (personal laws) को एकरूप बनाना। हिंदू समाज में संपत्ति, उत्तराधिकार, विवाह और गोद लेने के मामलों में परंपरागत नियम विविध और जटिल थे।1956 में जब हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम पारित हुआ, तो उसका उद्देश्य था महिलाओं को समान अधिकार देना और संपत्ति के उत्तराधिकार में आधुनिक दृष्टिकोण लाना। यह अधिनियम हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख — इन चार धार्मिक समुदायों पर लागू हुआ।
लेकिन इस कानून के धारा 2(2) में एक महत्वपूर्ण अपवाद रखा गया —
“यह अधिनियम उन व्यक्तियों पर लागू नहीं होगा जो अनुसूचित जनजातियों से संबंधित हैं।”
इस प्रावधान का कारण यह था कि भारत के संविधान ने अनुसूचित जनजातियों को विशेष स्थिति दी है, क्योंकि उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराएं विशिष्ट और स्वायत्त हैं। इसलिए राज्य ने यह तय किया कि उनकी संपत्ति के उत्तराधिकार के लिए उनकी पारंपरिक रीति-रिवाज और प्रथाएं ही मान्य रहेंगी, न कि सामान्य हिंदू कानून।
2. हालिया सुप्रीम कोर्ट का निर्णय : न्यायमूर्ति करोल और मिश्रा की पीठ
2.1 मामला किस बारे में था-इस केस में एक अनुसूचित जनजाति से संबंधित परिवार के भीतर संपत्ति के उत्तराधिकार को लेकर विवाद हुआ। निचली अदालतों में पक्षकारों ने यह दलील दी कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम लागू होना चाहिए, जिससे महिला उत्तराधिकारी को भी संपत्ति में बराबरी का अधिकार मिले। लेकिन दूसरी ओर यह तर्क दिया गया कि यह अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर लागू ही नहीं होता, इसलिए उनकी परंपरागत व्यवस्था लागू होगी।
Read More: सुप्रीम कोर्ट का फैसला: नाबालिग के निजी अंगों को छूना बलात्कार नहीं बल्कि यौन उत्पीड़न
2.2 सुप्रीम कोर्ट की मुख्य टिप्पणियाँ
न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की खंडपीठ ने साफ कहा कि —
“हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 का अनुप्रयोग अनुसूचित जनजातियों पर नहीं होता, जब तक कि केंद्र सरकार अधिसूचना जारी कर यह न कहे कि यह अधिनियम उन पर लागू होगा।”
अदालत ने यह भी जोड़ा कि यह छूट इसलिए है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 13 और 342 के तहत अनुसूचित जनजातियों को सांस्कृतिक स्वायत्तता प्राप्त है, और उनकी पारंपरिक प्रणालियों में हस्तक्षेप तभी किया जा सकता है जब वे मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन करें।
3. संविधान में अनुसूचित जनजातियों की विशेष स्थिति
3.1 संविधान की दृष्टि से संरक्षण- भारत का संविधान सामाजिक न्याय के सिद्धांत पर आधारित है। अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष प्रावधान किए गए ताकि उनकी संस्कृति, पहचान और परंपरा संरक्षित रह सके। अनुच्छेद 46 राज्य को यह निर्देश देता है कि वह “अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को विशेष रूप से बढ़ावा दे।”
3.2 सांस्कृतिक स्वायत्तता बनाम समान नागरिक संहिता- यहां एक बड़ा सवाल उठता है — अगर संविधान समानता की बात करता है, तो फिर एक कानून सब पर समान रूप से क्यों नहीं लागू किया जा सकता?इसका उत्तर संविधान की बहुलतावादी आत्मा में छिपा है। भारत में एक समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) का विचार जरूर है, लेकिन उसे लागू करते समय जनजातीय समाज की स्वायत्त परंपराओं को कुचलना संविधान की भावना के विपरीत होगा।
4. न्यायालय की संवेदनशील दृष्टि : कानून और संस्कृति के बीच संतुलन
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह स्वीकार किया कि अनुसूचित जनजातियाँ केवल एक कानूनी वर्ग नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक इकाई हैं। उनकी पारंपरिक व्यवस्था अक्सर सामुदायिक हित पर आधारित होती है, न कि व्यक्तिगत संपत्ति पर। इसलिए न्यायालय ने यह माना कि ऐसे समुदायों पर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम लागू करना उनकी सामाजिक बनावट को तोड़ने जैसा होगा।
न्यायमूर्ति करोल ने टिप्पणी की कि —
“राज्य को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कानून बनाते समय वह जनजातीय समुदायों की परंपराओं को भी ध्यान में रखे। न्याय केवल समान नियम थोपने से नहीं, बल्कि समान सम्मान देने से होता है।”
Read More: POSH अधिनियम से बाहर राजनीतिक दल — लोकतंत्र में महिलाओं की स्थिति पर बड़ा प्रश्नचिह्न
5. महिलाओं के अधिकार और जनजातीय समाज
5.1 समानता का प्रश्न-यहां सबसे महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दा है — महिलाओं के उत्तराधिकार का अधिकार। जनजातीय समाजों में कई बार पुरुषों को संपत्ति पर प्रमुख अधिकार प्राप्त होते हैं, जबकि महिलाओं के अधिकार सीमित होते हैं। इसलिए यह प्रश्न उठता है कि क्या इस फैसले से जनजातीय महिलाओं को नुकसान होगा?
सुप्रीम कोर्ट ने इस पर भी स्पष्ट कहा कि —
“राज्य सरकारें और केंद्र, दोनों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जनजातीय महिलाओं के अधिकारों की रक्षा हो; परंतु ऐसा करते समय उनके पारंपरिक ढांचे को नष्ट किए बिना संतुलन बनाया जाए।”
5.2 राज्य की जिम्मेदारी-इस निर्णय से यह दायित्व राज्यों पर भी आता है कि वे अपने-अपने क्षेत्र की जनजातियों के रीति-रिवाजों का अध्ययन करें और यदि कहीं महिलाओं के अधिकारों का स्पष्ट हनन हो रहा है, तो सुधार की प्रक्रिया समुदाय की सहमति से चलाई जाए — न कि जबरन।
6. सामाजिक और व्यावहारिक प्रभाव
6.1 जनजातीय क्षेत्रों में न्याय की पहुंच-इस फैसले का एक सकारात्मक प्रभाव यह है कि यह जनजातीय स्वशासन की अवधारणा को मजबूत करता है।लेकिन साथ ही यह चुनौती भी रखता है कि जब संपत्ति को लेकर विवाद हों, तो न्याय के लिए कौन-सी प्रणाली अपनाई जाएगी — परंपरागत पंचायत या औपचारिक अदालत?
6.2 सामाजिक चेतना का विकास- यह निर्णय एक अवसर भी प्रदान करता है कि जनजातीय समाज अपनी आंतरिक परंपराओं की समीक्षा करें। जहां आवश्यकता हो, वे अपने रीति-रिवाजों में बदलाव लाएं ताकि महिलाओं और कमजोर वर्गों को न्याय मिल सके।
7. कानूनी विश्लेषण : धारा 2(2) की व्याख्या
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 2(2) इस पूरे विवाद का केंद्र है।इस धारा के अनुसार, अनुसूचित जनजातियों पर अधिनियम लागू नहीं होगा।लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि उन्हें कोई कानून संरक्षण नहीं देता। वे अपनी रीतियों, customary laws और स्थानीय व्यवस्थाओं के अधीन रहकर न्याय पा सकते हैं।कानूनी दृष्टि से यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 13 और 14 (समानता और विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया) के साथ तालमेल रखता है, क्योंकि समानता का अर्थ एकरूपता नहीं, बल्कि समान अवसर और सम्मान है।
8. न्यायिक दृष्टिकोण : “संविधान का मानवीय चेहरा”
यह फैसला न्यायपालिका के उस मानवीय दृष्टिकोण को सामने लाता है, जो केवल कानून की किताबें नहीं, बल्कि समाज की नब्ज़ भी पढ़ता है। न्यायमूर्ति करोल और मिश्रा ने यह स्पष्ट किया कि संविधान का उद्देश्य समाज को संवेदनशील न्याय देना है, न कि केवल कानूनी औपचारिकता। यह निर्णय बताता है कि भारत की एकता विविधता में ही निहित है, और कानून को उस विविधता के साथ सामंजस्य बिठाना होगा।
Read More: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय: छात्र आत्महत्या और मानसिक स्वास्थ्य पर विधिक दृष्टिकोण
9. न्यायिक व्याख्या और धारा 2(2) का गहन विश्लेषण
9.1 विधायी मंशा (Legislative Intent)-जब 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम संसद में पारित किया जा रहा था, तब विधायकों ने एक गहरी संवेदनशीलता दिखाई। संसद की बहसों में यह स्पष्ट कहा गया कि अनुसूचित जनजातियों की अपनी परंपराएं और सामाजिक व्यवस्थाएं हैं — जो सदियों से प्रचलित हैं।इनकी सामाजिक संरचना कुटुंब और सामुदायिक स्वामित्व पर आधारित होती है। इसीलिए, इन पर “संपत्ति के निजी अधिकार” का वही सिद्धांत नहीं लागू किया जा सकता जो मुख्यधारा के हिंदू समाज पर होता है।
धारा 2(2) का उद्देश्य यह नहीं था कि जनजातियों को कानून के दायरे से बाहर रखा जाए, बल्कि यह कि उन्हें उनकी संस्कृति के अनुसार न्याय मिले। यह “अपवर्जन” नहीं बल्कि “संरक्षण” का प्रावधान है।
10. संविधानिक दृष्टि से विश्लेषण : समानता, स्वायत्तता और विविधता
10.1 अनुच्छेद 14 और 15 – समानता की परिभाषा-संविधान का अनुच्छेद 14 समानता के अधिकार की बात करता है, लेकिन यह “समान व्यवहार” नहीं, बल्कि “युक्तिसंगत वर्गीकरण” (reasonable classification) की अनुमति देता है। अनुसूचित जनजातियाँ एक ऐसा वर्ग हैं जिनकी सामाजिक स्थिति, जीवनशैली और आर्थिक संरचना विशिष्ट है।
इसलिए, उन्हें अलग कानून देना अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं, बल्कि उसका व्यावहारिक अनुप्रयोग है।अनुच्छेद 15(4) राज्य को विशेष प्रावधान बनाने की अनुमति देता है ताकि अनुसूचित जनजातियों को समान अवसर मिल सकें।इस दृष्टि से, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम से उनका अपवर्जन असमानता नहीं, बल्कि सकारात्मक समानता (positive equality) है।
10.2 अनुच्छेद 342 और जनजातियों की पहचान
10.3 अनुच्छेद 21 – गरिमा और जीवन का अधिकार
“जहां परंपरा मूलभूत अधिकारों से टकराए, वहां सुधार जरूरी है; लेकिन जहां परंपरा समाज की आत्मा है, वहां सम्मान जरूरी है।”
11. महिलाओं के संपत्ति अधिकार और अंतरराष्ट्रीय न्यायशास्त्र
11.1 भारतीय परिप्रेक्ष्य-भारत में महिलाओं के संपत्ति अधिकारों का संघर्ष लम्बा रहा है। 1956 का अधिनियम महिलाओं के अधिकारों की दिशा में ऐतिहासिक कदम था। लेकिन जनजातीय समाजों में यह सवाल और भी जटिल हो जाता है, क्योंकि वहां संपत्ति अक्सर सामुदायिक होती है, व्यक्तिगत नहीं। कई जनजातियों में महिलाओं को पारंपरिक रूप से आर्थिक भूमिका में समान सम्मान मिलता है, भले ही संपत्ति के नाम पर नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि किसी अधिकार को केवल पश्चिमी मापदंडों से नहीं, बल्कि स्थानीय सामाजिक संदर्भों से देखा जाना चाहिए।
11.2 अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण – CEDAW और UNDRIP-भारत ने CEDAW (Convention on the Elimination of All Forms of Discrimination Against Women) और UNDRIP (United Nations Declaration on the Rights of Indigenous Peoples) जैसे अंतरराष्ट्रीय दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किए हैं। इन दोनों में यह कहा गया है कि महिलाओं को समान अधिकार मिलें, परंतु सांस्कृतिक विविधता का सम्मान करते हुए। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय इन अंतरराष्ट्रीय सिद्धांतों से मेल खाता है — यानी महिलाओं के अधिकारों की रक्षा संवाद और सुधार के माध्यम से होनी चाहिए, न कि थोपे गए एकरूप कानूनों से।
12. समाजशास्त्रीय दृष्टि : भारतीय बहुलता का संवैधानिक सम्मान
भारत का समाज “एक रंग” नहीं बल्कि “इंद्रधनुष” है। सैकड़ों भाषाएँ, परंपराएँ, और विश्वास प्रणालियाँ एक साथ यहां फलती-फूलती हैं। जनजातीय समाजों की व्यवस्था अक्सर सामुदायिक न्याय पर आधारित होती है, जो कि “विवाद-निवारण” की बजाय “सामंजस्य-संरक्षण” की भावना रखती है। इसलिए, अदालतों का यह रुख — कि जनजातीय समाजों की न्याय व्यवस्था को मान्यता दी जाए — वास्तव में सांस्कृतिक न्याय (cultural justice) का उदाहरण है। यह बताता है कि भारत में न्याय का अर्थ केवल कानून नहीं, बल्कि संविधानिक मानवीय दृष्टिकोण है।
13. नीतिगत सुझाव (Policy Recommendations)
13.1 केंद्र और राज्य सरकारों की भूमिका-इस फैसले के बाद अब केंद्र और राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है कि वे प्रत्येक राज्य में लागू जनजातीय customary laws का संपूर्ण दस्तावेजीकरण करें।इससे एक ओर जनजातियों के अधिकारों की रक्षा होगी, दूसरी ओर महिलाओं और कमजोर वर्गों को न्यायिक सुरक्षा भी मिलेगी।
13.2 जनजातीय महिला आयोगों की स्थापना-राज्यों में Tribal Women’s Rights Commissions बनाए जाने चाहिए, जो यह देखें कि पारंपरिक कानूनों में महिलाओं के साथ किसी प्रकार का भेदभाव तो नहीं हो रहा।अगर हो रहा है, तो समुदाय की भागीदारी के साथ सुधार के सुझाव लाए जाएं।
13.3 विधि आयोग और संसद की भूमिका-विधि आयोग (Law Commission) को चाहिए कि वह “Customary Laws and Gender Justice in Tribal India” पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करे। इससे भविष्य में जब कोई अधिसूचना या संशोधन हो, तो वह संवेदनशील और तथ्यपरक हो।
14. न्यायपालिका की संतुलित भूमिका : हस्तक्षेप नहीं, मार्गदर्शन
सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय में यह सिद्ध किया कि न्यायपालिका का उद्देश्य समाज पर कानून थोपना नहीं, बल्कि न्यायपूर्ण सामंजस्य स्थापित करना है। अदालत ने न केवल संविधान का पालन किया, बल्कि सामाजिक न्याय की उस भावना को भी जीवित रखा जिसके लिए संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संघर्ष किया था। यह फैसला बताता है कि न्यायपालिका तब सबसे शक्तिशाली होती है जब वह संवेदनशील और सीमित हस्तक्षेप करती है। यह “संवैधानिक सह-अस्तित्व” (Constitutional Coexistence) का आदर्श उदाहरण है।
15. भविष्य की दिशा : एक नए सामाजिक अनुबंध की आवश्यकता
भारत को अब एक ऐसी न्यायिक और नीतिगत दृष्टि की जरूरत है जो —
-
विविधता को बोझ नहीं, बल्कि संपदा समझे,
-
और समानता को एकरूपता नहीं, बल्कि अवसर के रूप में देखे।
अगर भविष्य में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम को अनुसूचित जनजातियों पर लागू करने की बात उठती है, तो यह केवल संसद या न्यायपालिका का नहीं, बल्कि जनजातीय समाज की सहमति का भी प्रश्न होगा।
16. निष्कर्ष : संविधान की आत्मा में निहित न्याय- यह निर्णय हमें याद दिलाता है कि भारतीय संविधान केवल “कानूनी दस्तावेज़” नहीं, बल्कि “सामाजिक अनुबंध” है — जो हर वर्ग, हर समुदाय को सम्मान और सुरक्षा प्रदान करता है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस निर्णय से यह संदेश दिया है कि —
“कानून का उद्देश्य समाज को जोड़ना है, तोड़ना नहीं।”
अनुसूचित जनजातियों की परंपराओं का सम्मान करते हुए, अदालत ने यह साबित किया कि भारत का लोकतंत्र अपनी विविधता से ही सशक्त है। यह फैसला केवल कानून की व्याख्या नहीं, बल्कि संविधान के जीवित दर्शन की पुनः पुष्टि है। भारत का भविष्य तभी मजबूत होगा जब हमारी न्याय प्रणाली विविधता को समानता के साथ जोड़कर देखे।यह फैसला आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मिसाल है कि न्याय का असली अर्थ “समान कानून” नहीं, बल्कि “समान गरिमा” है।
