सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय: छात्र आत्महत्या और मानसिक स्वास्थ्य पर विधिक दृष्टिकोण
परिचय: एक त्रासदी जो देश की आत्मा को झकझोर गई
भारत के शिक्षा तंत्र में सफलता की दौड़ अक्सर छात्रों पर असहनीय मानसिक दबाव डालती है। विशेष रूप से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्र, परिवार की अपेक्षाओं और संस्थागत वातावरण के बीच पिसते रहते हैं। ऐसे ही एक मामले में एक 17 वर्षीय छात्रा, जो राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (NEET) की तैयारी कर रही थी, विशाखापत्तनम स्थित अपने छात्रावास की तीसरी मंजिल से गिर गई। इस घटना को आत्महत्या का रूप देने का प्रयास हुआ, परंतु उसके पिता ने न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया, यह मानते हुए कि यह एक सुनियोजित संस्थागत विफलता और संभावित साजिश का परिणाम थी।
यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा, जहां न केवल जांच को CBI को सौंपा गया, बल्कि अदालत ने व्यापक और बाध्यकारी दिशानिर्देश भी जारी किए, जो भारत में छात्र कल्याण और मानसिक स्वास्थ्य को संवैधानिक संरक्षण प्रदान करते हैं।
मामले की पृष्ठभूमि- मृत छात्रा पश्चिम बंगाल की रहने वाली थी और एक प्रतिष्ठित कोचिंग संस्थान में मेडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी हेतु विशाखापत्तनम आई थी। संस्थान द्वारा अनुशंसित एक निजी छात्रावास में रह रही यह छात्रा 14 जुलाई 2023 को संदिग्ध परिस्थितियों में नीचे गिरी। उसे तत्काल अस्पताल में भर्ती कराया गया, लेकिन दो दिनों के भीतर उसकी मृत्यु हो गई। पुलिस ने इस मामले को आत्महत्या करार देते हुए आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 174 के तहत जांच प्रारंभ की, लेकिन छात्रा के पिता द्वारा उठाए गए गंभीर सवालों के कारण मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचा।
कानूनी प्रश्न और न्यायिक दृष्टिकोण
इस प्रकरण में न्यायालय के समक्ष निम्नलिखित विधिक प्रश्न उपस्थित हुए:
1. क्या मानसिक स्वास्थ्य जीवन के अधिकार (अनुच्छेद 21) का अभिन्न अंग है?
2. क्या जांच में इतनी त्रुटियाँ थीं कि उसे केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) को सौंपना
उचित होगा?
3. क्या छात्र आत्महत्याओं को रोकने हेतु न्यायालय को बाध्यकारी दिशानिर्देश जारी करने
चाहिए?
4. क्या शिक्षा संस्थानों की संस्थागत जिम्मेदारी तय की जा सकती है?
तथ्यों की विवेचना और न्यायालय की टिप्पणियाँ
सर्वोच्च न्यायालय ने मामले की सूक्ष्मता से विवेचना की और पाया कि:
- CCTV फुटेज में लड़की के वस्त्रों में विसंगति थी, जिससे उसकी पहचान संदिग्ध हो जाती
है;
- AIIMS की रिपोर्ट के अनुसार लड़की अस्पताल में भर्ती होते समय सचेत थी, परंतु उसका
कोई बयान दर्ज नहीं किया गया;
- पोस्टमार्टम, विष-विश्लेषण, और अस्पताल की आंतरिक समिति — तीनों में एक ही डॉक्टर
की भूमिका थी;
- महत्वपूर्ण साक्ष्य जैसे विसरा समय से पहले नष्ट कर दिया गया;
- मानसिक स्वास्थ्य सहायता, संरचनात्मक निगरानी या छात्र कल्याण की कोई व्यवस्था संस्थान
में नहीं थी।
मानवाधिकार और संवैधानिक सिद्धांत
मानसिक स्वास्थ्य को अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार में शामिल करना सर्वोच्च न्यायालय का एक प्रगतिशील और दूरगामी निर्णय है। अदालत ने यह भी माना कि जब विधायिका किसी विशेष क्षेत्र में मौन हो, तब न्यायपालिका अपने विशेषाधिकारों (अनुच्छेद 32 एवं 142) के तहत हस्तक्षेप कर सकती है।
इस निर्णय में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 के प्रावधानों और अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों (जैसे कि CRPD) को भी आधार बनाया गया।
दिशानिर्देशों की प्रमुख विशेषताएँ
सुप्रीम कोर्ट ने छात्रों के लिए जो दिशानिर्देश जारी किए, वे अत्यंत व्यापक और स्पष्ट हैं:
- प्रत्येक 100 छात्रों पर एक प्रशिक्षित परामर्शदाता;
- शिक्षकों व वार्डनों के लिए मानसिक स्वास्थ्य प्रशिक्षण;
- अकादमिक प्रदर्शन पर आधारित भेदभावकारी वर्गीकरण पर रोक;
- गोपनीय शिकायत निवारण प्रणाली;
- छात्रावासों में सुरक्षा ऑडिट;
- आत्महत्या निवारण हेल्पलाइन की प्रमुखता से प्रदर्शनी;
- मानसिक स्वास्थ्य नीतियों की संस्था-स्तरीय घोषणा।
राज्यों और केंद्र सरकार को आदेश
न्यायालय ने न केवल संस्थानों को दिशानिर्देशों का पालन करने को कहा, बल्कि राज्यों और केंद्र सरकार को भी निर्देशित किया:
- सभी राज्यों को दो माह में कोचिंग संस्थानों हेतु विनियमन बनाना होगा;
- केंद्र सरकार को 90 दिनों में अनुपालन रिपोर्ट दाखिल करनी होगी;
- प्रत्येक जिले में कलेक्टर की अध्यक्षता में छात्र मानसिक स्वास्थ्य समिति गठित की
जाएगी।
प्रभाव और भविष्य की दिशा
यह निर्णय शिक्षा प्रणाली में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। अब मानसिक स्वास्थ्य को एक 'वैकल्पिक सेवात्मक लाभ' नहीं, बल्कि 'संविधान प्रदत्त अधिकार' के रूप में मान्यता मिल गई है।
इस निर्णय के प्रभाव स्वरूप:
- छात्र कल्याण नीतियों में मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता मिलेगी;
- राज्य व केंद्र सरकारों पर कानूनी दायित्व लागू होंगे;
- भावी नीतिगत सुधार और संसदीय कानून की दिशा में मार्ग प्रशस्त होगा।
निष्कर्ष: संवैधानिक करुणा का नया अध्याय-सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय केवल एक छात्रा की त्रासदी के समाधान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय न्यायपालिका के संवेदनशील और दूरदर्शी स्वरूप का परिचायक है। यह निर्णय उस मौन को शब्द देता है जिसे हजारों छात्र वर्षों से भीतर ही भीतर सहन करते आ रहे हैं।
अब समय है कि हम मानसिक स्वास्थ्य को अधिकार के रूप में स्वीकार करें, उसे संस्थागत स्तर पर संरक्षित करें और अपने शिक्षा तंत्र को संवेदनशील एवं समावेशी बनाएं।
Judgment link- https://www.livelaw.in/pdf_upload/judgment-184892024-25-07-2025-612080.pdf
