जानकी’ और ‘रघुराम’ नाम पर सेंसर बोर्ड की आपत्ति
क्या यह कलाकार की स्वतंत्रता का हनन है?
कला में अभिव्यक्ति की आज़ादी और सामाजिक-सांस्कृतिक संवेदनशीलता के बीच संतुलन बनाए रखना लोकतंत्र की महत्वपूर्ण चुनौती है। भारत में फिल्म, सिनेमा माध्यम का एक शक्तिशाली माध्यम है जो सिर्फ मनोरंजन ही नहीं, सामाजिक, नैतिक, धार्मिक विमर्शों को भी सामने लाता है। ऐसे में, फिल्म के शीर्षक, पात्रों के नाम, संवाद आदि विषयों पर नियंत्रण — या विचार-विमर्श — स्वाभाविक रूप से विवाद का विषय बन जाते हैं।
हाल ही में, छत्तीसगढ़ की एक फिल्म निर्माता की याचिका ने एक नया विवाद सामने लाया है: इस फिल्म के नाम “जानकी” और मुख्य पात्रों के नाम “जानकी” व “रघुराम” पर सर्टिफिकेशन बोर्ड (CBFC) ने आपत्ति जताई है। इस आपत्ति को चुनौती देने के लिए बॉम्बे हाईकोर्ट ने CBFC को जवाब देने का नोटिस जारी किया है। इससे जुड़ी कानूनी, संवैधानिक और सिनेमा-नीति से जुड़ी चुनौतियाँ इस लेख में विस्तार से बताएँगे।
आइए पहले घटना-क्रम, पक्ष-विपक्ष, कानूनी आधार, समानांतर उदाहरण और संभावित परिणामी दिशा पर नज़र डालें।
घटना का संक्षिप्त विवरण
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फिल्म और पात्र
निर्माता एक छत्तीसगढ़ी भाषा की फिल्म बना रहे थे, जिसका हिंदी संस्करण भी बनाया गया। इस फिल्म का नाम “जानकी” रखा गया है। फिल्म की कहानी मुख्यतः “जानकी” और “रघुराम” नामक पात्रों के बीच संबंधों, संघर्षों और एक्शन-तत्त्वों पर आधारित है। (Live Law) -
CBFC की आपत्ति
जब निर्माताओं ने प्रमाणन (certification) के लिए आवेदन किया, तो CBFC ने यह बताया कि फिल्म के “Examining Committee” ने इसे यूए (UA 16+) प्रमाणपत्र देने की सिफारिश की, पर इसके साथ कुछ संशोधन और कटौती (modifications, deletions) की शर्त रखी। महत्वपूर्ण आपत्ति यह थी कि:-
फिल्म का शीर्षक “जानकी” देवी सीता का नाम है, इसलिए धार्मिक-सांस्कृतिक भावनाओं को ठेस पहुंचने की संभावना है।
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फिल्म के पुरुष मुख्य पात्र का नाम “रघुराम” है, जिसे नाम भी धार्मिक-संस्कृति से जोड़कर आपत्ति की गई।
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इसलिए शीर्षक और पात्रों के नाम बदलने की मांग भी की गई। (Live Law Hindi)
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निर्माताओं की याचिका
इस आपत्ति को लेकर निर्माताओं ने बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर की। उन्होंने तर्क दिया कि:-
CBFC द्वारा लगाए गए आपत्तियाँ मनमानी, अव्यावहारिक और वैधानिक आधार से रहित हैं।
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वे निर्देश जो शीर्षक या पात्र नाम बदलने संबंधी हैं, वे अभिव्यक्ति की आज़ादी (धारा 19(1)(a) भारतीय संविधान) का हनन हैं।
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फिल्म का नाम, पात्र नाम आदि पहले ही अनुमति, पंजीकरण और प्रचारित हो चुके हैं — उन्हें बाद में बदला नहीं जाना चाहिए।
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यदि इन आपत्तियों को दूर न किया गया तो उन्हें “निर्धारित रिलीज़ विंडो” गंवानी पड़ेगी, वितरण व्यवस्था प्रभावित होगी, प्रतिष्ठा और साख को नुकसान होगा आदि।
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इस तरह की आपत्तियों का अनुपालन उनके कलात्मक स्वतंत्रता और आर्थिक निवेश को नष्ट कर सकता है। (Live Law)
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हाईकोर्ट का नोटिस
बॉम्बे हाईकोर्ट की खंडपीठ — न्यायमूर्ति रेवती मोहिते‑डेरे एवं न्यायमूर्ति संदेह पाटिल — ने CBFC को 6 अक्तूबर 2025 तक इस याचिका पर जवाब देने का आदेश दिया है। (Live Law Hindi) -
न्यायालयों में समान विवाद
निर्माताओं ने यह भी नाम दिया कि एक अन्य मामला — M/s Cosmos Entertainments vs Regional Officer, CBFC (जानकी बनाम राज्य केरल फिल्म) — में केरल हाईकोर्ट ने यह कहा था कि किसी फिल्म निर्माता को “जानकी” शब्द शीर्षक या संवादों से हटाने या बदलने के लिए मजबूर करना, वाक् की स्वतंत्रता का असंवैधानिक उल्लंघन है। (Live Law)
विषयगत विश्लेषण: संवैधानिक और विधिक दृष्टिकोण
1. अभिव्यक्ति की आज़ादी बनाम सांस्कृतिक-साम्प्रदायिक संवेदी प्रतिक्रिया
भारतीय संविधान की धारा 19(1)(a) सभी नागरिकों को “वचन और अभिव्यक्ति की आज़ादी” देती है। अर्थात् व्यक्ति (या संस्था) अपनी राय, विचार, कला, साहित्य आदि को अभिव्यक्त करने का अधिकार रखता है। इस अधिकार पर कुछ सीमाएँ हो सकती हैं — जैसे सार्वजनिक व्यवस्था, शिष्टाचार, अपमान, अश्लीलता आदि — पर ये सीमाएँ स्पष्ट और वैधानिक होनी चाहिए।
CBFC जब फिल्म सामग्री, शीर्षक या नाम को बदलने का निर्देश देता है, तो वह सीधे निर्माता की अभिव्यक्ति की स्वायत्तता में हस्तक्षेप करता है। यदि यह हस्तक्षेप “मनमानी” है या सुव्यवस्थित आधार पर नहीं किया गया हो, तो वह संवैधानिक रूप से टिक नहीं सकता।
निर्माताओं की तर्क यह है कि CBFC ने “सामान्य मान्यताओं और आम धाराओं” पर भरोसा किया है, बिना यह देखे कि फिल्म में जिस संदर्भ में नाम या पात्र प्रयुक्त हैं, उसकी ऐतिहासिक, संदर्भात्मक, कलात्मक भूमिका क्या है। अगर CBFC ने इस तरह के संशोधन अनिश्चित और गैर-सुस्पष्ट आधार पर मांगे हों, तो वे न्यायालय द्वारा अस्थिर (unconstitutional) माना जा सकते हैं।
2. CBFC की नोटिस और गाइडलाइंस सीमाएँ
CBFC का कानून आधारित अधिकार Cinematograph Act, 1952 और उस अधिनियम की नियमावलियाँ (Rules) हैं। CBFC को यह अधिकार है कि वह फिल्म सामग्री की समीक्षा करे और यदि वह किसी सामग्री को “अपशिष्ठता, अश्लीलता, उत्तेजक, संवेदनशील धार्मिक या सामाजिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाला” माने, तो उसे काटे, संशोधित करे या प्रमाणन ठुकराए।
पर CBFC को यह शक्ति “arbitrary” नहीं होनी चाहिए। इसे निम्न बिंदुओं पर विचार करना चाहिए:
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क्या CBFC ने समीक्षा करते समय पूरे फिल्मपात्रों, संवादों, संदर्भ आदि को समझा है?
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क्या उसने निर्माता को सुनवाई का अवसर दिया है?
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क्या प्रस्तावित कटौती या नाम परिवर्तन का सुझाव उचित, तर्कसंगत और न्यूनतम प्रभाव वाला है?
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क्या CBFC ने यह दिखाया है कि यदि नाम “जानकी” रखा जाए, तो कोई गंभीर धार्मिक या सामाजिक दुष्प्रभाव वास्तविकतः उत्पन्न होगा, न कि केवल आकलन?
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क्या CBFC के निर्देश संक्षिप्त, स्पष्ट और न्यायोचित हैं — कि किस भाग को कैसे बदला जाए?
यदि CBFC ने इन बिंदुओं का विचार न किया हो, या केवल सामान्य “संवेदनशीलता” की धारणा पर निर्भर किया हो, तो अदालत इन निर्देशों को खारिज कर सकती है।
3. नाम या शीर्षक परिवर्तन का अर्थ और कठिनाई
निर्माताओं का तर्क यह भी है कि शीर्षक और पात्र नाम पहले से तय हो चुके हैं — यानी प्रचार-प्रसार, पंजीकरण, ब्रांडिंग आदि हो चुके हैं। उन्हें बाद में बदलना चाहे अर्थ, पहचान, मार्केटिंग को प्रभावित करेगा।
ये बिंदु विचारणीय हैं:
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यदि निर्माता को कोई “अति परिवर्तन” करना पड़े — जैसे शीर्षक बदलना — तो वह व्यावसायिक और वित्तीय रूप से हानिकारक हो सकता है।
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यदि नाम परिवर्तन से दर्शक भ्रमित होंगे या फिल्म की पहुँच प्रभावित होगी, तो यह असंगत है।
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अक्सर फिल्म के नाम को दर्शक, प्रमोशन, ट्रेलर आदि माध्यमों से पहचान मिली होती है — इसलिए नाम से छेड़छाड़ करना अभिव्यक्ति की पहचान को बाधित कर सकता है।
इसलिए, यदि CBFC की मांग नाम/शीर्षक परिवर्तन की है, तो इसे तभी स्वीकार किया जाना चाहिए जब वह आवश्यक हो — अन्यथा वह निर्माता के अधिकार को अनुचित रूप से बाधित करती है।
4. समान-न्यायालयिक उदाहरण
यह विवाद बिल्कुल नए नहीं है। भारत में विभिन्न मामलों में फिल्मों के नाम, पात्र नाम या संवादों को लेकर विवाद हुआ है। यहाँ कुछ संबंधित उदाहरण दिए जाते हैं:
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M/s Cosmos Entertainments vs CBFC / राज्य केरल — जैसा कि निर्माताओं ने तर्क दिया है, इस मामले में केरल हाईकोर्ट ने कहा कि “जानकी” शब्द हटाने या बदलने के लिए मजबूर करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है। (Live Law)
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और, ऐसे मामलों में न्यायालय ने यह देखा है कि यदि नाम या शब्द परिवर्तन “विरोधाभासी या अतिशय” हो, तो अदालत उन निर्देशों को खारिज कर सकती है।
इन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि न्यायालय अक्सर CBFC की मांगों को content‑based censorship की दृष्टि से कड़ी निगरानी से देखता है। यदि CBFC के निर्देश तर्कसंगत, प्रमाणित और न्यूनतम हस्तक्षेप पर आधारित नहीं हों, तो उन्हें उलट दिया जाता है।
5. संभावित न्यायालयीन निर्णय की संभावना
बॉम्बे हाईकोर्ट ने अभी तक इस याचिका पर अंततः निर्णय नहीं दिया है; इस समय CBFC से जवाबी पुछताछ कराई गई है। लेकिन संभावित दृष्टिकोण और जोखिम इस प्रकार हो सकते हैं:
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यदि CBFC की आपत्ति तर्कहीन, अव्यावस्थित या अधूरा हो, तो हाईकोर्ट उन आपत्तियों को खारिज कर सकती है।
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कोर्ट यह निर्देश भी दे सकती है कि यदि किसी कटौती या नाम-परिवर्तन की सलाह दी जाए, तो वह न्यूनतम हो और सिर्फ विवादित हिस्सों तक सीमित हो।
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कोर्ट यह स्पष्ट कर सकती है कि CBFC को पहले निर्माता को सुधार प्रस्ताव देने, तर्क देने का अवसर देने की आवश्यकता है — और बिना पर्याप्त कारण दिए नाम/शीर्षक रूपांतरण नहीं मांग सकती।
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यदि मिशन सफल हो, तो निर्माताओं को प्रमाणन दिया जा सकता है बिना नाम/शीर्षक परिवर्तन के, या सिर्फ मामूली संशोधनों के बाद।
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इस फैसले का प्रभाव अन्य फिल्मों पर एक तरह की दिशा देने वाला हो सकता है — कि नाम/शीर्षक विवादों पर CBFC की भूमिका कितनी सीमित हो सकती है।
संक्षेप में, इस याचिका का निर्णय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सिनेमा‑नियामक नियंत्रण के बीच मानक स्थापित कर सकता है।
सामाजिक, सांस्कृतिक और नीतिगत परिप्रेक्ष्य
यह विवाद सिर्फ कानूनी प्रश्न नहीं है — इसके पीछे व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक और नीतिगत प्रश्न हैं। नीचे उन प्रश्नों का विश्लेषण प्रस्तुत है।
A. नाम और प्रतीकात्मक मूल्य
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धार्मिक नामों का सांस्कृतिक महत्व
भारत में देवी-देवताओं, धार्मिक पात्रों या पौराणिक नामों का उपयोग कला, साहित्य, थिएटर और फिल्मों में लंबे समय से हुआ है। नाम “राम”, “सीता”, “जानकी”, “राधा” आदि कई रचनाओं में प्रयुक्त होते रहे हैं।
इस बीच, यदि कोई निर्देशक या लेखक “जानकी” नाम चुनता है — वह जरूरी नहीं कि धार्मिक पंथ भावना को आक्रोशित करना चाहता हो; यह सिर्फ एक नाम हो सकता है, उस नाम के सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रख कर। -
नाम और श्रोता की स्वायत्त व्याख्या
फिल्म दर्शक वही समझेंगे जो उसे देखने का संदर्भ देंगे। यदि पात्र “जानकी” के नाम से व्यक्ति को देवी-सीता की याद आती है, तो यह दर्शक की पूर्वाग्रह भी हो सकती है। किंतु इसका मतलब यह नहीं कि वह स्वचालित रूप से विरोध का आधार बन जाये।
कला में नाम चयन एक रचनात्मक निर्णय है — जिसमें नाम की प्रतीकात्मकता और उसके प्रभाव को निर्देशक देखता है। यदि नाम-प्रयोग संज्ञानपूर्वक किया गया हो और उसमें अपमान या नकारात्मक स्वर नहीं हो, तो इस पर रोक लगाना निहित भावों को नियंत्रित करने जैसा होगा।
B. नियंत्रक निकाय और उसकी भूमिका
CBFC की भूमिका है सिनेमा सामग्री की समीक्षा करना और यह सुनिश्चित करना कि किसी फिल्म से समाज की सार्वजनिक व्यवस्था, मनोभावनात्मक संवेदनशीलता या आपसी सौहार्द को हानि न पहुँचे।
लेकिन इस समीक्षा जिम्मेदारी में निम्न चुनौतियाँ हैं:
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निष्पक्षता और तर्कसंगत विवेक: CBFC को यह तय करना होगा कि कौन-सी सामग्री संवेदनशील है और पूर्वाग्रह के बजाय तर्कसंगत आधार पर निर्णय ले।
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पारदर्शिता: यदि किसी कटौती या नाम परिवर्तन का सुझाव हो, तो स्पष्ट रूप से बताना चाहिए कि क्यों, किस हिस्से में और किस तर्क पर।
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संवादात्मक प्रक्रिया: निर्माता को यह अवसर देना कि वह अपनी रचनात्मक दृष्टि को प्रस्तुत करे और CBFC के प्रत्युत्तर पर आपत्ति करे।
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न्यूनतम हस्तक्षेप: यदि कोई सुधार अपेक्षित हो, तो वह सिर्फ जरूरतमंद हिस्सों पर हो — न कि पूरी रचना को बदलने वाला।
कॉर्पोरेट नीतिगत रूप से भी, यदि CBFC द्वारा हर फिल्म के नाम, नामकरण या पात्र विवरण को प्रतिबंधित किया जाए, तो वह सिनेमा निर्माण की स्वतन्त्रता और नवाचार को बाधित कर सकता है।
C. कलाकारों, निर्माताओं और दर्शकों पर प्रभाव
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निर्माताओं को जोखिम
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यदि नाम/शीर्षक को बाद में बदलना पड़े, तो लागत, प्रचार, ब्रांडिंग, वितरण आदि प्रभावित होंगे।
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वित्तीय नुकसान, रिलीज़ विंडो छूटना, वितरण व्यवधान आदि अनिवार्य हो सकते हैं।
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कलात्मक दृष्टिकोण से, यदि नाम-परिवर्तन से फिल्म की मूल पहचान बदल जाए, तो उसका रचनात्मक मूल्य प्रभावित होगा।
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दर्शक और सूचना अधिकार
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दर्शकों को यह जानने का अधिकार है कि वे किस फिल्म को देख रहे हैं — नाम और परिचय इसके भाग हैं।
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यदि नाम/नामकरण को अचानक बदला जाए, तो दर्शक भ्रमित हो सकते हैं।
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सरकार या बोर्ड द्वारा नाम-नियंत्रण से कलाकारों पर “संयम” की सेंसरशिप प्रभाव बढ़ सकती है — यथा “अगर नाम विवादित हो सकता है, बेहतर है नाम न लें” की प्रवृत्ति बन सकती है।
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नवाचार और संवेदनशीलता
हर नाम विवादित नहीं होता, लेकिन यदि निर्माता स्वयं संभावित विवादों को देखकर नाम चुनना बंद कर दें, तो रचनात्मक सीमाएँ लग सकती हैं।
दूसरी ओर, संवेदनशीलता को अनदेखा करना भी ठीक नहीं — अगर किसी नाम-प्रयोग से वास्तविक सामाजिक या धार्मिक अपमान हो रहा हो, तो समीक्षा करनी चाहिए। मुद्दा यह है कि उस समीक्षा का तरीका न्यायसंगत हो।
संभावित बहस और तर्क
नीचे कुछ संभावित तर्क और उसके विरोधी तर्क दिए जा रहे हैं — ताकि यह स्पष्ट हो सके कि इस विवाद में विभिन्न दृष्टिकोण कैसे टकरा सकते हैं।
| तर्क | समर्थक पक्ष | विरोधी पक्ष / समालोचना |
|---|---|---|
| नाम “जानकी” देवी-सीता से जुड़ा है, इसलिए आपत्ति जायज़ है | यह नाम धार्मिक और सांस्कृतिक पवित्रता से जुड़ा है — किसी फिल्म में उसका उपयोग यदि जाति-धर्म भावनाएं आहत कर सकता है | यदि नाम सिर्फ पात्र का है और संदर्भ संबंधी विवाद न हो, तो आपत्ति का आधार कमजोर है; साथ ही, अन्य अनेक फिल्में इसी तरह नामों का उपयोग कर चुकी हैं |
| CBFC को संवेदनशीलता की जिम्मेदारी है | सर्टिफिकेशन बोर्ड को यह देखना चाहिए कि किसी फिल्म से साम्प्रदायिक विवाद न हो | पर यह जिम्मेदारी “मनमानी” नहीं होनी चाहिए — उसका निर्णय तर्कसंगत और विवेकपूर्ण होना चाहिए |
| नाम परिवर्तन कर देना एक हल है | यदि विवाद हो सकता है, तो निर्माता नाम बदल लें — विवाद से बचने का उपाय | नाम परिवर्तन निर्माता को वाणिज्यिक और कलात्मक नुकसान पहुंचा सकता है; साथ ही यह एक स्वैच्छिक नहीं, बल्कि बाध्यकारी निर्देश बनना चाहिए |
| नाम आपत्ति करने का अधिकार केवल CBFC का नहीं | यदि सार्वजनिक संवेदनशीलता है, तो जनता या शिकायतकर्ता को भी न्यायालय जाना चाहिए | यदि CBFC हर नाम पर आपत्ति करे, तो सिनेमा निर्माताओं की सीमाएँ बढ़ेंगी — जिससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित हो सकती है |
इन बहसों के आधार पर, न्यायालय को यह देखना होगा कि CBFC की आपत्ति और निर्देश तर्क, संविदान, न्यूनतम हस्तक्षेप तथा निर्माता के अधिकारों की रक्षा के बीच संतुलन बनाएँ।
संभावित प्रभाव और भविष्य दिशा
यह विवाद केवल इस एक फिल्म तक सीमित नहीं रहेगा; यदि कोर्ट इस पर एक मजबूत निर्णय दें, तो इसके कई क्षेत्रों में प्रभाव दिख सकते हैं:
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प्री-प्रोडक्शन सोच में बदलाव
निर्माता आगे से अधिक सावधानी बरतेंगे — नाम चयन, पात्र नाम, संदर्भ आदि में विवाद न हो इस तरह की “प्रिव्हल” समीक्षा करने की प्रवृत्ति बढ़ सकती है। -
CBFC की प्रतिक्रिया और प्रक्रिया सुधार
यदि कोर्ट यह स्पष्ट करे कि CBFC को पहले निर्माता को सुनने का अवसर देना चाहिए, तर्क माँगना चाहिए और न्यूनतम हस्तक्षेप करना चाहिए — तो CBFC अपनी आंतरिक प्रक्रिया सुधार सकती है। -
न्यायालयीन मानदंड स्थापित होना
इस विवाद से एक “मानक” बन सकता है — कि फिल्म प्रमाणन में नाम/शीर्षक विवादों को कैसे निपटाया जाए। अन्य न्यायालय इसे उदाहरण मान सकते हैं। -
कलात्मक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता का सशक्तरण
यदि कोर्ट निर्माता के पक्ष में निर्णय दें, तो यह फिल्म, थिएटर, साहित्य आदि क्षेत्रों में संवेदनशील नाम-उपयोग की स्वतंत्रता को बढ़ावा देगा। -
संवेदनशीलता और सामाजिक संतुलन की चुनौतियाँ
किन-किन मामलों में नाम विवादित माना जाए, इस पर राजनीतिक और सामाजिक दबावों का जोखिम रहेगा। नीति-निर्माताओं और नियंत्रण निकायों को संतुलन बनाए रखना होगा।
इस विवाद में, हम देख रहे हैं कि कैसे एक नाम या पात्र नाम ही इतने बड़े सार्वजनिक और कानूनी संघर्ष का विषय बन सकते हैं। इस संघर्ष की जड़ में न सिर्फ कानून और संवैधानिक अधिकार हैं, बल्कि कला, संस्कृति, धार्मिक भावनाएं और सामाजिक संवेदनाएँ सब मिली हुई हैं।
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यदि CBFC की आपत्तियाँ तर्कहीन हों, बिना उचित तर्क और प्रक्रिया के हों, तो न्यायालय उन्हें अवैध ठहराएगी।
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यदि निर्माता की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित हुई हो, तो न्यायालय उसका संरक्षण करेगी।
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इस निर्णय से आगे की फिल्मों, प्रमाणन प्रक्रिया, कलात्मक निर्णय और सांस्कृतिक बहसों पर गहरा असर पड़ेगा।
इस समय हम देखेंगे कि बॉम्बे हाईकोर्ट CBFC के जवाब को कैसे देखती है और किस दिशा में फैसला करती है। इस फैसले से भारतीय सिनेमा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दिशा नए मानदंड बनेंगे।
