लिंचिंग का दौर और इलाहाबाद हाईकोर्ट की चेतावनी
भारतीय लोकतंत्र की आत्मा संविधान में बसती है — जहां कानून के शासन (Rule of Law) और समानता के अधिकार (Right to Equality) को सर्वोच्च माना गया है। लेकिन जब भीड़ (mob) कानून का स्थान लेने लगे, जब न्यायालय की जगह सड़कों पर “गौरक्षा” के नाम पर सजा दी जाने लगे, और जब पुलिस प्रशासन ऐसे मामलों में सिर्फ औपचारिकता निभाने लगे — तब यह लोकतंत्र के लिए गहरी चिंता का विषय बन जाता है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यही बात उजागर की। अदालत ने यह टिप्पणी की कि “आज के समय में हिंसा, लिंचिंग और गौरक्षा के नाम पर खुद कानून हाथ में लेने की प्रवृत्ति आम होती जा रही है, और इस तरह की प्रवृत्ति संविधान के सिद्धांतों के विरुद्ध है।”
यह टिप्पणी उस समय आई जब अदालत ने उत्तर प्रदेश गौहत्या निवारण अधिनियम के तहत दर्ज कुछ एफआईआरों की समीक्षा करते हुए कहा कि कई मामलों में “बिना साक्ष्य, केवल संदेह या सामाजिक दबाव में एफआईआर दर्ज की जा रही हैं।”
इस टिप्पणी ने न केवल पुलिस प्रणाली की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगाया, बल्कि यह भी बताया कि किस तरह “गौरक्षा” के नाम पर हिंसा धीरे-धीरे समाज में सामान्य होती जा रही है।
गौरक्षा से गौरक्षकों तक: एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
गाय की पूजा और उससे जुड़ा धार्मिक भाव भारतीय संस्कृति का प्राचीन हिस्सा है। वेदों से लेकर पुराणों तक, गौमाता को पवित्र माना गया है। लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर और नेहरू युग के नेताओं ने गौरक्षा को धार्मिक की बजाय आर्थिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने की बात कही थी।
स्वतंत्रता के बाद संविधान के अनुच्छेद 48 में राज्य को यह निर्देश दिया गया कि वह पशुधन की रक्षा करे और गौवध को सीमित या प्रतिबंधित करने के लिए नीति बनाए। लेकिन यह एक “Directive Principle” था — यानी यह न्यायालय में प्रवर्तनीय अधिकार नहीं था, बल्कि नीति निर्देश था।
हालांकि, समय के साथ गौरक्षा का यह विषय धार्मिक भावनाओं और राजनीतिक प्रतीकों से जुड़ गया। और यही वह बिंदु था, जहां से “गौरक्षा” एक सामाजिक-आर्थिक नीति से बढ़कर “धार्मिक पहचान और राजनीतिक ध्रुवीकरण” का उपकरण बन गई।
गौरक्षा कानूनों की संरचना और उनका दुरुपयोग
भारत के अधिकांश राज्यों ने 1950 के दशक से लेकर आज तक अलग-अलग समय पर गौवध निषेध अधिनियम बनाए। उत्तर प्रदेश का गौहत्या निवारण अधिनियम 1955 इसी श्रेणी में आता है।
इन कानूनों का मूल उद्देश्य पशुधन की सुरक्षा था, लेकिन पिछले एक दशक में इनके दुरुपयोग की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। कई बार केवल “संदेह” या “अफवाह” के आधार पर आरोप लगाए जाते हैं — और कई बार पुलिस बिना प्राथमिक जांच के एफआईआर दर्ज कर लेती है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इसी प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए कहा कि:
“पुलिस अधिकारियों को यह समझना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति पर गौवध का आरोप लगाने से पहले ठोस साक्ष्य आवश्यक हैं। केवल स्थानीय दबाव या राजनीतिक प्रभाव में आकर एफआईआर दर्ज करना कानून की भावना का अपमान है।”
लिंचिंग: भीड़ का कानून और लोकतंत्र का पतन
“लिंचिंग” शब्द का प्रयोग उन घटनाओं के लिए किया जाता है, जहां भीड़ किसी व्यक्ति पर अपराध का आरोप लगाकर स्वयं उसे दंडित कर देती है — अक्सर मार-पीट या हत्या के रूप में। भारत में गौरक्षा के नाम पर लिंचिंग की घटनाएं 2015 के बाद अचानक बढ़ीं।राजस्थान, झारखंड, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार, असम — लगभग हर राज्य में ऐसे मामले सामने आए जहां भीड़ ने मुसलमानों या दलितों को “गाय तस्कर” या “गौहत्यारा” बताकर पीट-पीटकर मार डाला। यह प्रवृत्ति केवल हिंसा नहीं, बल्कि एक “सामाजिक संदेश” भी देती है — कि भीड़ अब कानून से ऊपर है। यह लोकतंत्र के लिए सबसे खतरनाक संकेत है, क्योंकि कानून का शासन तब समाप्त हो जाता है जब न्यायालय की जगह भीड़ सजा देने लगे।
संविधान की दृष्टि से लिंचिंग और गौरक्षा की परिभाषा
भारत का संविधान कानून के शासन पर आधारित है। अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) — ये तीनों अनुच्छेद “लिंचिंग” के खिलाफ मौलिक सुरक्षा प्रदान करते हैं।
लिंचिंग का सीधा अर्थ है — किसी व्यक्ति को न्यायिक प्रक्रिया के बिना दंडित करना। यह न केवल अनुच्छेद 21 (Right to Life) का उल्लंघन है, बल्कि यह न्याय के मूल सिद्धांतों (Principles of Natural Justice) का भी अपमान है।
संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं, लेकिन यह स्वतंत्रता कानून और सार्वजनिक व्यवस्था के अधीन है। इसका अर्थ है कि किसी धर्म के नाम पर हिंसा या जबरदस्ती न्याय की अनुमति नहीं दी जा सकती। इस प्रकार, “गौरक्षा के नाम पर हिंसा” संविधान की आत्मा के साथ असंगत है।
न्यायपालिका की भूमिका: संवैधानिक नैतिकता की पुनःस्थापना
“भीड़तंत्र को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। राज्य का कर्तव्य है कि वह ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए कानून, व्यवस्था और जवाबदेही सुनिश्चित करे।”
अदालत ने राज्यों को तीन स्तरीय ढांचा सुझाया —
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निवारक उपाय (Preventive Measures) – पुलिस चौकसी और संवेदनशील क्षेत्रों की निगरानी।
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उपचारात्मक उपाय (Remedial Measures) – पीड़ितों को मुआवजा और न्यायिक सहायता।
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दंडात्मक उपाय (Punitive Measures) – जिम्मेदार अधिकारियों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई।
इलाहाबाद हाईकोर्ट की हालिया टिप्पणी इसी संवैधानिक चेतना का विस्तार है। अदालत ने पुलिस को चेताया कि “कानून का पालन करने के बजाय किसी वर्ग विशेष को लक्षित करने वाली कार्रवाई” राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को क्षति पहुंचाती है।
पुलिस की भूमिका और एफआईआर की लापरवाही
“एफआईआर दर्ज करते समय पुलिस का दायित्व निष्पक्ष और विवेकपूर्ण होना चाहिए, न कि भीड़ या किसी संगठन के दबाव में।”
यह टिप्पणी केवल कानूनी औपचारिकता नहीं थी, बल्कि यह एक गहरी सामाजिक चेतावनी थी — कि जब पुलिस न्याय की जगह लोकप्रिय भावना के अनुसार काम करने लगे, तब न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना ही पड़ता है।
भीड़-हिंसा और अल्पसंख्यकों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव
लिंचिंग केवल शारीरिक हिंसा नहीं है, यह एक मनोवैज्ञानिक हिंसा भी है। जब समाज के एक वर्ग को यह संदेश दिया जाता है कि वह “संदेह” के आधार पर मारा जा सकता है, तो उसके भीतर भय, असुरक्षा और अलगाव की भावना घर कर जाती है। इस प्रकार की हिंसा सामाजिक एकता (Social Cohesion) को तोड़ती है और “हम बनाम वे” की मानसिकता को बढ़ावा देती है। यह लोकतंत्र की आत्मा के विपरीत है, जो विविधता में एकता (Unity in Diversity) पर आधारित है।
मीडिया और भीड़तंत्र: सूचना बनाम उकसावा
राजनीतिक विमर्श और भीड़ की वैधता
राजनीतिक दलों ने भी कभी-कभी इस मुद्दे को वोट-बैंक की राजनीति के लिए इस्तेमाल किया है। “गौरक्षा” के नाम पर नारे, प्रचार और सार्वजनिक रैलियाँ आयोजित की गईं, जिससे समाज में ध्रुवीकरण बढ़ा। लोकतंत्र में राजनीति का उद्देश्य कानून बनाना और व्यवस्था सुनिश्चित करना होना चाहिए — न कि भावनाओं को भड़काकर सत्ता प्राप्त करना। इलाहाबाद हाईकोर्ट की टिप्पणी का यह निहितार्थ भी है कि “राजनीति को संविधान के अनुशासन में रहना चाहिए।”
समाजशास्त्रीय विश्लेषण: भीड़ की मानसिकता कैसे बनती है
भीड़-हिंसा अचानक नहीं होती — यह लंबे समय तक बनाए गए “पूर्वाग्रह, अफवाह और भय” का परिणाम होती है। समाजशास्त्री इसे Collective Behaviour कहते हैं, जहां व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत नैतिकता खो देता है और समूह के प्रभाव में हिंसक हो जाता है। यह प्रवृत्ति तब और खतरनाक हो जाती है जब धार्मिक या राष्ट्रवादी प्रतीक उसमें जोड़ दिए जाते हैं। गौरक्षा के नाम पर बनी भीड़ इसी सामूहिक मानसिकता का उदाहरण है।
कानून का शासन बनाम धर्म का शासन
भारत का संविधान स्पष्ट रूप से धर्मनिरपेक्ष है। इसका अर्थ यह नहीं कि राज्य धर्म-विरोधी है, बल्कि यह कि राज्य किसी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता। जब गौरक्षा के नाम पर हिंसा को समाज में “धर्म की रक्षा” कहा जाता है, तब यह संविधान के सेक्युलरिज़्म की भावना पर हमला है। कानून का शासन (Rule of Law) तभी टिक सकता है जब किसी अपराध की सजा न्यायालय तय करे, न कि सड़क पर खड़ी भीड़।
लिंचिंग विरोधी कानून की आवश्यकता
भारत में अभी तक लिंचिंग पर कोई अलग केंद्रीय कानून नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में केंद्र और राज्यों को निर्देश दिया था कि वे “लिंचिंग विरोधी विशेष कानून” बनाएं। कुछ राज्यों जैसे — राजस्थान, मणिपुर, पश्चिम बंगाल — ने अपने स्तर पर एंटी-लिंचिंग बिल पारित किए हैं, लेकिन केंद्र स्तर पर यह पहल अभी भी अधूरी है।
लिंचिंग विरोधी कानून में तीन तत्व आवश्यक माने जाते हैं:
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अपराध की स्पष्ट परिभाषा।
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अधिकारियों की जवाबदेही।
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पीड़ितों के लिए पुनर्वास और न्यायिक सहायता।
पुलिस सुधार और जवाबदेही की दिशा में कदम
इलाहाबाद हाईकोर्ट की टिप्पणी ने एक बार फिर यह सवाल उठाया है कि पुलिस किसके प्रति जवाबदेह है — संविधान के प्रति या सत्ता के प्रति? जब तक पुलिस राजनीतिक प्रभाव से मुक्त नहीं होगी, तब तक निष्पक्ष जांच संभव नहीं। जरूरत है एक ऐसी पुलिस व्यवस्था की जो नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करे, न कि भीड़ के दबाव में एफआईआर दर्ज करे।
नागरिक समाज की भूमिका
संविधान ही सर्वोच्च है
इलाहाबाद हाईकोर्ट की यह टिप्पणी हमें संविधान की याद दिलाती है — कि किसी भी लोकतंत्र में कानून से ऊपर कोई नहीं है, न भीड़, न संगठन, न सत्ता। गौरक्षा के नाम पर की गई हिंसा केवल एक व्यक्ति की हत्या नहीं, बल्कि यह उस विचार की हत्या है जो भारत को विविधता, सह-अस्तित्व और न्याय के मार्ग पर आगे बढ़ाता है।
न्यायपालिका का यह दायित्व है कि वह बार-बार समाज को यह याद दिलाए कि —
“कानून का शासन ही सच्ची गौरक्षा है।”
अगर राज्य, पुलिस और समाज मिलकर इस चेतावनी को गंभीरता से लें, तो शायद भारत एक बार फिर उस मार्ग पर लौट सकेगा जहां न्याय, करुणा और समानता सर्वोपरि थे।
