(Sanjay Kumar vs State of UP, 17 November 2025)
भारत में आपराधिक मुकदमों में अक्सर यह माना जाता है कि “घायल गवाह झूठ क्यों बोलेगा?” क्योंकि चोट होना इस बात का संकेत है कि वह घटना-स्थल पर मौजूद था। लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 17 नवंबर 2025 को एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है: “घायल गवाह की चोट उसकी मौजूदगी की गारंटी है, लेकिन उसकी गवाही की सत्यता की नहीं—खासकर तब, जब आरोपी भी घायल हो।”
यह फैसला बताता है कि घायल गवाह की गवाही स्वतः उच्च स्तर (higher pedestal) पर नहीं रखी जा सकती, बल्कि अदालत को उसे अन्य सबूतों और परिस्थितियों की कसौटी पर परखना होगा।
यह निर्णय BNSS (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita), Bharatiya Nyaya Sanhita (BNS) और सुप्रीम कोर्ट की मिसालों के अनुरूप है।
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केस की पृष्ठभूमि — क्या हुआ था?
2018 में संजय कुमार नामक व्यक्ति ने आरोप लगाया कि तीन अभियुक्तों ने उस पर चाकू से हमला किया, जिससे उसकी उँगलियों में चोट लगी। वह कहता है कि FIR दर्ज नहीं हुई, इसलिए उसे कोर्ट में शिकायत दाखिल करनी पड़ी। लेकिन ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को बरी कर दिया। इसकी अपील इलाहाबाद हाईकोर्ट में की गई।
हाईकोर्ट ने क्या पाया?
अदालत ने पाया कि:
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कथित रूप से तीन उंगलियों के कटने की बात कही गई थी, लेकिन
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मेडिकल रिपोर्ट में दो उंगलियों पर lacerated wounds और एक उंगली पर incised wound मिला।
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बाकी चोटें blunt object से होने वाली लग रही थीं।
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घटना के 16 दिन बाद शिकायत हुई—बिना किसी उचित स्पष्टीकरण के।
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आरोपी पक्ष ने डायल-100 कर पुलिस बुलायी, लेकिन शिकायतकर्ता ने यह तथ्य छिपाया।
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आरोपी भी घायल हुआ था—लेकिन शिकायतकर्ता ने यह भी छिपाया।
इस विरोधाभास और देरी ने अदालत के संदेह को बढ़ाया।
घायल गवाह की गवाही को लेकर अदालत का मुख्य सिद्धांत
अदालत ने स्पष्ट शब्दों में कहा: "Injury is a guarantee of presence, not a guarantee of truth." (चोट इस बात की गारंटी है कि गवाह मौजूद था, लेकिन उसकी पूरी कहानी सत्य हो—यह जरूरी नहीं।)
यह क्यों महत्वपूर्ण है?
1. आरोपी भी घायल हो — तो स्थिति बदल जाती है
अगर पीड़ित और आरोपी दोनों घायल हों, तो अदालत को:
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घटना का verdadeiro sequence
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किसने पहले हमला किया
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क्या self-defence की स्थिति थी
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क्या दोनों पक्षों में झगड़ा था
इन सब बातों को गहराई से जांचना पड़ता है।
2. घायल गवाह की गवाही को आंख मूँदकर स्वीकार नहीं किया जा सकता
सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों पर भरोसा करते हुए हाईकोर्ट ने कहा:
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Lallu Manjhi v. State of Jharkhand (2003)
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Thaman Kumar (2003)
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Muluwa v. State of MP (1976)
ये सभी बताते हैं: यदि घायल गवाह की कहानी मेडिकल, परिस्थितिजन्य या अन्य साक्ष्यों से मेल न खाए—तो उसे “wholly reliable” नहीं माना जा सकता।
मेडिकल सबूत बनाम मौखिक गवाही — कौन भारी?
अदालत ने मेडिकल सबूत और गवाही का मिलान किया और कई विसंगतियाँ पाईं:
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गवाह → कहता है तीन उंगलियाँ ‘कट’ गईं
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मेडिकल रिपोर्ट → सिर्फ एक उंगली पर sharp-edge injury
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बाकी दो चोटें blunt force trauma
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चोटें simple थीं — grievous नहीं
अदालत का निष्कर्ष: गवाही और मेडिकल सबूत में मेल नहीं—इसलिए घटना की उसकी कहानी विश्वसनीय नहीं।
16 दिन की unexplained delay — क्यों घातक साबित हुई?
देर से FIR या complaint हमेशा संदेह पैदा करती है, विशेषकर जब:
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कोई medical emergency नहीं
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कोई पुलिस की रिपोर्ट नहीं
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कोई credible explanation नहीं
सुप्रीम कोर्ट के 5 महत्वपूर्ण फैसलों का हवाला देकर हाईकोर्ट ने कहा:
Unexplained delay = prosecution story doubtful
Examples: Thulia Kali (1972), Rajesh Patel (2013) आदि
अकेले घायल गवाह पर कब भरोसा किया जा सकता है?
कानून कहता है कि sole injured witness पर भरोसा किया जा सकता है, अगर:
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गवाही consistent हो
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medical evidence support करे
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उसकी बात प्राकृतिक हो
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उसकी कहानी में कोई महत्वपूर्ण छेद न हो
लेकिन इस केस में: medical mismatch
इसलिए अदालत ने कहा: उनकी गवाही न पूरी तरह विश्वसनीय है, न पूरी तरह अविश्वसनीय — इसे corroboration के बिना स्वीकार नहीं किया जा सकता।
अंतिम निर्णय — अपील क्यों खारिज हुई?
हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के acquittal को सही माना क्योंकि:
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अभियोजन कहानी संदेह से परे सिद्ध नहीं कर पाया
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घायल गवाह की कहानी कई जगह कमजोर पड़ी
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delay विश्वसनीय नहीं
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medical contradictions मौजूद
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accused की injuries explain नहीं की गईं
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कोई independent witness trial में पेश नहीं हुआ
इस फैसले से क्या समझ आता है?
1. घायल गवाह की चोट = उसकी मौजूदगी लेकिन सच का प्रमाण नहीं।
2. Medical evidence बहुत crucial है अगर चोटों का nature गवाह की कहानी से मेल न खाए — कहानी गिर जाती है।
3. आरोपी की चोटें explain करनी होंगी नहीं तो prosecution version कमजोर माना जाएगा।
4. Delay बिना explanation = prosecution doubtful
5. Sole witness हो तो उसका evidence “wholly reliable” होना चाहिए यदि नहीं—acquittal संभव है।
Conclusion
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला एक महत्वपूर्ण guideline देता है:
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घायल गवाह की गवाही महत्वपूर्ण है—लेकिन infallible नहीं।
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अदालत को हमेशा medical reports, circumstances और accused की चोटों का भी मूल्यांकन करना चाहिए।
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यदि गवाही contradictions और omissions से भरी हो, तो conviction सुरक्षित नहीं।
यह फैसला BNSS के नए सिद्धांतों (evidence scrutiny, contradiction analysis, delay doctrine) को भी आगे बढ़ाता है।
Download Judgment: Sanjay Kumar vs. Appellant Versus State of U.P. And Others
FAQs
1. क्या घायल गवाह की गवाही हमेशा सबसे विश्वसनीय मानी जाती है?
नहीं। कोर्ट कहती है कि यह सिर्फ उसकी मौजूदगी साबित करती है, सच की गारंटी नहीं।
2. अगर आरोपी भी घायल हो, तो क्या होता है?
तब prosecution को आरोपी की चोटों का credible explanation देना पड़ता है — नहीं तो उसकी कहानी कमजोर पड़ जाती है।
3. क्या sole injured witness के आधार पर conviction संभव है?
हाँ, लेकिन तभी जब उसकी गवाही consistent, natural और medical evidence के अनुरूप हो।
4. FIR की देरी क्यों घातक होती है?
क्योंकि इससे prosecution की कहानी में संदेह पैदा होता है — unless delay properly explained हो।
5. Medical evidence और oral evidence में अंतर हो तो कौन मान्य?
अदालत अक्सर medical evidence को अधिक विश्वसनीय मानती है क्योंकि यह scientific proof है।
6. इस केस में मुख्य वजह क्या थी जिससे appeal dismiss हुई?
Medical contradictions, लंबी unexplained delay, accused की injury explain न होना, और गवाही की inconsistent testimony।
