डिजिटल दौर में अदालतें भी बदल रही हैं। पहले गवाह अदालत में आकर कटघरे में खड़ा होता था, जज सामने, वकील सामने, और पूरा माहौल “कोर्टरूम” जैसा होता था। अब धीरे-धीरे ऐसी स्थितियाँ आम हो रही हैं, जहाँ गवाह किसी दूसरे शहर, दूसरे राज्य या यहाँ तक कि विदेश में बैठकर वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग (VC) के ज़रिए गवाही देता है।
ऐसी ही पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट का एक महत्वपूर्ण फैसला सामने आया, जिसमें अदालत ने साफ कहा कि जब किसी गवाह की गवाही वर्चुअल मोड से दर्ज की जा रही हो, और उसकी कोई पूर्व लिखित बयानबाज़ी (prior statement) मौजूद हो, तो उसे गवाह तक इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से पहुँचाना ज़रूरी है। यह बात सुनने में एक तकनीकी प्रक्रिया जैसी लग सकती है, लेकिन इसका सीधा संबंध निष्पक्ष सुनवाई (fair trial) और सही cross-examination से है।
Read More: इलाहाबाद HC: घायल गवाह की गवाही हमेशा सर्वोच्च नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने यह सिद्धांत इस चिंता से विकसित किया कि कहीं ऐसा न हो कि वर्चुअल गवाही के नाम पर एक पक्ष (खासकर आरोपी/defence) के अधिकार कमजोर पड़ जाएँ। अदालत ने साफ कहा कि तकनीक का इस्तेमाल न्याय को आसान बनाने के लिए हो, न्याय को कमजोर करने के लिए नहीं।
फैसले की बुनियाद: गवाह, उसकी पुरानी बात और वीडियो स्क्रीन के बीच की दूरी
कल्पना कीजिए—एक आपराधिक मुकदमा चल रहा है, जिसमें एक महत्वपूर्ण गवाह पहले पुलिस के सामने या किसी न्यायिक अधिकारी के सामने अपना लिखित बयान दे चुका है। बाद में, किसी कारण से वह अदालत में फिजिकली उपस्थित नहीं हो पाता और उसे वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग से गवाही के लिए बुलाया जाता है।
अब बचाव पक्ष (defence) चाहता है कि वह उसकी गवाही को उसके पुराने लिखित बयान से टकरा कर देखे, यह देखने के लिए कि क्या उसने पहले कुछ और कहा था और अब कुछ और कह रहा है — यानी contradiction या improvement कहाँ है।
अगर उस वर्चुअल गवाह के सामने वह पुराना बयान उपलब्ध ही न हो, या सिर्फ जज या वकील के पास हो, और गवाह को यह ठीक से न दिखाया जाए या न भेजा जाए, तो क्या cross-examination सचमुच निष्पक्ष कहा जा सकता है?
यही प्रश्न सुप्रीम कोर्ट के सामने था। अदालत ने साफ कहा कि ऐसे हालात में ट्रायल कोर्ट की यह जिम्मेदारी है कि वह गवाह को उसका prior written statement इलेक्ट्रॉनिक रूप से भेजे, ताकि जब उसके किसी हिस्से पर उससे सवाल किए जाएँ, तो वह स्पष्ट रूप से देख सके कि उससे किस बात का सामना कराया जा रहा है।
Read More: 1930 Cyber Helpline पर Complaint कैसे करें? India की सबसे आसान Step-by-Step Legal Guide
कानून की भाषा में इसका आधार: नया Evidence Law (Bharatiya Sakshya Adhiniyam) और cross-examination का अधिकार
अब भारत में पुराना Indian Evidence Act हटकर उसकी जगह Bharatiya Sakshya Adhiniyam, 2023 (BSA) लागू हो चुका है। इस नए कानून में भी वही मूल सिद्धांत बरकरार हैं कि गवाह की पूर्व लिखित बयानबाज़ी से उसे सामना कराते समय प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए।
पुराने Evidence Act की तरह, BSA की संबंधित धाराएँ (जैसे पूर्व लिखित बयान पर ध्यान दिलाने और उससे टकरा कर जिरह करने से जुड़ी प्रावधान) यह बताती हैं कि:
-
अगर किसी गवाह ने पहले लिखित बयान दिया है,
-
और अब अदालत में कुछ अलग कह रहा है,
-
तो बचाव पक्ष को पूरा अधिकार है कि वह उसे उस लिखित बयान के संबंधित हिस्से दिखाए, पढ़वाए और उस पर प्रश्न करे।
सामान्य तौर पर, जब गवाह कोर्ट में सामने खड़ा होता है, तो उससे कहा जा सकता है — “आपने पहले ऐसा-ऐसा लिखा था, यहाँ देखिए…” और फिर उसके सामने वो कागज़ रख दिया जाता है। लेकिन जब वही गवाह वीडियो स्क्रीन के पीछे है, किसी दूसरे शहर में बैठा है, तब वही चीज़ सिर्फ मुँह से बोलकर या दूर से पढ़कर सुना देने से पर्याप्त नहीं मानी जा सकती।
Read More: भारत में चेक बाउंस केस: कानून और प्रक्रिया पर विश्लेषण
यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट कहता है कि जिस पर आप गवाह का सामना कर रहे हैं, वह दस्तावेज़ उसे इलेक्ट्रॉनिक रूप से भेजा जाए — जैसे ईमेल, सुरक्षित लिंक, कोर्ट के डिजिटल पोर्टल या किसी अन्य विश्वसनीय माध्यम से। इस तरह, गवाह के पास भी वह दस्तावेज़ आर्काइव के रूप में मौजूद रहेगा और वह साफ-साफ समझ पाएगा कि उससे किस बात पर सवाल पूछा जा रहा है।
ये निर्देश निष्पक्ष सुनवाई से कैसे जुड़े हैं?
भारतीय आपराधिक कानून की आत्मा यह है कि हर आरोपी को fair trial का अधिकार है। चाहे वो Bharatiya Nyaya Sanhita (BNS) के तहत अपराध का आरोपी हो, या पहले IPC के तहत, सिद्धांत वही है—
-
उसे अपने खिलाफ आए सबूतों को चुनौती देने का अधिकार है,
-
गवाहों से जिरह करने का अधिकार है,
-
और किसी भी लिखित या मौखिक साक्ष्य के खिलाफ अपनी बात रखने का अधिकार है।
जब गवाह physical court में होता है, तो ये अधिकार साफ दिखते हैं। लेकिन जैसे ही trial डिजिटल होता है, यह खतरा बढ़ जाता है कि कहीं प्रक्रिया “formal” तो न हो जाए, पर substantive justice कहीं पीछे न रह जाए।
Read More: सुप्रीम कोर्ट का सख्त संदेश: “राजनीतिक पहचान ट्रायल प्रक्रिया तय नहीं कर सकती
सुप्रीम कोर्ट ने इसी बात पर जोर देते हुए कहा कि:
-
वर्चुअल गवाही के दौरान procedure को हल्का नहीं लिया जा सकता,
-
cross-examination की तकनीकी नींव (जैसे previous statement दिखाना, उस पर सवाल पूछना, गवाह से स्पष्टीकरण लेना) पूरी ईमानदारी से निभानी होगी,
-
अगर trial court इस प्रक्रिया को पूरा नहीं करता, तो आगे चलकर यह conviction या acquittal दोनों पर असर डाल सकता है, और अपील में मामला उलट भी सकता है।
यानी, कोर्ट यह संदेश भी दे रहा है कि “वीडियो लिंक से गवाही हो रही है, इसलिए थोड़ी ढिलाई चल जाएगी” — ऐसा सोचने की इजाज़त अब नहीं है।
तकनीक, न्याय और संतुलन: Supreme Court ने क्या संकेत दिए?
यह निर्णय केवल एक case-specific direction नहीं है, बल्कि पूरे देश की trial courts के लिए मार्गदर्शन है। इसका मतलब है कि:
-
अब भविष्य में जब भी किसी गवाह को VC से examine किया जाएगा,
-
और उसकी कोई prior statement (जैसे 161 CrPC का बयान, 164 CrPC, या किसी आयोग/जांच में दी गई लिखित testimony) मौजूद होगी,
-
तो trial court को proactively यह सुनिश्चित करना होगा कि वह बयान गवाह तक इलेक्ट्रॉनिक रूप से पहुँचाया जाए।
यहाँ एक और subtle लेकिन महत्वपूर्ण बात है — सुप्रीम कोर्ट तकनीक को नकार नहीं रहा, बल्कि यह कह रहा है कि तकनीक के साथ process और safeguards भी साथ-साथ विकसित किए जाएँ। दूसरे शब्दों में, यह judgment “digital justice” के मॉडल में एक brick जोड़ता है: डिजिटल सुविधा + procedural fairness = वास्तविक न्याय।
Read More: सुप्रीम कोर्ट: संपत्ति हस्तांतरण पर सेवा कर लागू नहीं
व्यावहारिक स्तर पर इसका असर: वकीलों, जजों और litigants के लिए संदेश
एक litigation lawyer या trial court practitioner के नज़रिए से देखें तो यह फैसला कई level पर असर डालता है।
-
Defence वकीलों के लिए यह एक महत्वपूर्ण टूल है — अगर virtual गवाही में prior statement share नहीं हुई, तो वो objection उठा सकते हैं और कह सकते हैं कि उनके मुवक्किल के fair trial का उल्लंघन हुआ।
-
Prosecution के लिए यह सावधानी का संदेश है — उन्हें सुनिश्चित करना होगा कि गवाह को पहले से या कम से कम गवाही के समय, उसकी लिखित बयानबाज़ी उपलब्ध हो।
-
जजों के लिए यह एक clear checklist है — recording of evidence के दौरान note किया जाए कि कौन-सा दस्तावेज़ कब, किस माध्यम से गवाह को भेजा गया, और क्या उसने प्राप्ति की पुष्टि (acknowledgment) दी।
-
Litigants (आम पक्षकार) के लिए यह भरोसे की बात है — कि भले ही वे किसी दूसरे शहर या देश से VC के जरिए मुकदमा लड़ रहे हों, लेकिन कानून उनके साथ procedural न्याय सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहा है।
भविष्य की दिशा: क्या यह शुरुआत है और आगे क्या हो सकता है?
यह फैसला शायद एक बड़े बदलाव की शुरुआती कड़ी है। आने वाले समय में संभव है:
-
हर हाईकोर्ट अपनी VC गाइडलाइंस को इस SC निर्देश के अनुरूप अपडेट करे,
-
district courts में VC rooms के साथ-साथ e-documents management system और बेहतर हों,
-
और Bharatiya Sakshya Adhiniyam, BNSS वगैरह के training modules में इस तरह के directions को शामिल किया जाए।
तकनीक तेज़ है, कानून उससे थोड़ा धीमा चलकर भी आखिरकार पकड़ लेता है — यह फैसला उसी “catching up” का एक उदाहरण है।
Read More: Digital Arrest-नया साइबर फ्रॉड और उसका कानूनी विश्लेषण
निष्कर्ष: स्क्रीन के पीछे भी गवाह के अधिकार और आरोपी की रक्षा
संक्षेप में, सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश हमें यह याद दिलाता है कि:
-
गवाह चाहे अदालत में सामने खड़ा हो या स्क्रीन के उस पार बैठा हो,
-
उसकी पूर्व लिखित बयानबाज़ी को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता,
-
और cross-examination की बुनियादी प्रक्रिया को technology के नाम पर dilute नहीं किया जा सकता।
