Test Identification Parade यानी TIP भारतीय आपराधिक न्याय प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण चरण माना जाता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में दिए गए निर्णय में एक बार फिर स्पष्ट कर दिया कि पहचान परेड तभी विश्वसनीय मानी जाती है जब गवाह ने आरोपी को TIP से पहले न देखा हो। इस केस में Supreme Court ने पाया कि गवाहों को पहचान परेड से पहले ही आरोपी को देखने का अवसर मिल गया था—कभी थाने में, कभी मीडिया में आई तस्वीरों के माध्यम से, और कभी पुलिस हिरासत में खुलेआम आरोपी को खड़े देखकर। ऐसे स्थिति में TIP का मूल उद्देश्य, जो कि गवाह की स्मृति की निष्पक्ष परीक्षा करना होता है, पूरी तरह समाप्त हो जाता है।
इस मामले के तथ्य बताते हैं कि घटना के बाद पुलिस ने संदिग्ध व्यक्तियों को गिरफ्तार किया, लेकिन उन्हें गवाहों से सुरक्षित रूप से अलग रखने में सावधानी नहीं बरती। गवाहों ने स्वीकार किया कि उन्होंने आरोपी को थाने के बाहर और अंदर कई बार देखा था। इतना ही नहीं, गिरफ्तारी के वक्त ली गई छवियाँ और समाचारों में दिखाए गए वीडियो भी गवाहों ने देखे थे। जब बाद में TIP कराई गई, तो वह पहले से बनी छवि के आधार पर हुई, न कि वास्तविक स्मृति पर। Court ने कहा कि ऐसी पहचान परेड को मुकदमे में विश्वसनीय साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
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Supreme Court ने यह भी कहा कि पहचान परेड का उद्देश्य “यह साबित करना नहीं है कि यही व्यक्ति अपराधी है,” बल्कि केवल यह जांचना है कि गवाह की memory विश्वसनीय है या नहीं। यदि गवाह को पहले ही आरोपी का चेहरा दिखा दिया जाए, तो यह memory test निष्पक्ष नहीं रह जाता। यही कारण है कि कोर्ट ने बार-बार कहा है कि TIP केवल corroborative evidence है—अर्थात् यह सिर्फ trial court को संकेत देती है, लेकिन यह मुख्य सबूत नहीं बन सकती। जब TIP ही प्रभावित हो जाती है, तब बाद में अदालत में की गई पहचान, जिसे dock identification कहा जाता है, वह भी संदिग्ध हो जाती है, क्योंकि गवाह की स्मृति पहले से प्रभावित हो चुकी होती है।
इस मामले में Supreme Court ने निचली अदालतों की reasoning का विस्तार से अध्ययन किया। Trial Court ने केवल TIP और बाद में की गई पहचान के आधार पर आरोपी को दोषी ठहराया था, जबकि यह अनदेखा कर दिया गया कि गवाहों ने आरोपी को TIP से पहले कई बार देखा था। High Court ने भी इस त्रुटि को गंभीरता से नहीं लिया। Supreme Court ने कहा कि इस प्रकार की पहचान को स्वीकार करना न्याय के सिद्धांतों के विपरीत है, क्योंकि criminal law में संदेह का लाभ हमेशा आरोपी को दिया जाता है। अगर पहचान की प्रक्रिया ही साफ न हो, तो उस पर आधारित दोष-सिद्धि सुरक्षित नहीं हो सकती।
Real-life में यह बात और भी महत्वपूर्ण है। किसी लूट, डकैती या अचानक हुई घटना में गवाह अक्सर भय, अंधेरी जगह या सीमित समय के कारण चेहरे को सही ढंग से याद नहीं रख पाता। बाद में यदि उसे पुलिस द्वारा पकड़े गए व्यक्ति को दिखा दिया जाए, तो उसका दिमाग उसी चेहरे को “असली अपराधी” के रूप में स्वीकार कर लेता है। बाद में TIP में वह उसी व्यक्ति की पहचान कर देता है, भले ही वह वास्तव में अपराधी न हो। Supreme Court ने इस मनोवैज्ञानिक पहलू को स्वीकार करते हुए कहा कि गलत पहचान के आधार पर किसी को दोषी ठहराना भारतीय दंड प्रणाली की बुनियाद को ही तोड़ देगा।
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इस केस में Court ने prosecution की सबसे बड़ी गलती भी उजागर की—TIP delayed हुई, आरोपी पहले ही सार्वजनिक रूप से दिखाई दे चुके थे, मीडिया कवरेज अनियंत्रित थी, पुलिस ने आरोपितों को ठोस तरीके से गवाहों से अलग करके नहीं रखा, और TIP का वास्तविक उद्देश्य पूरा नहीं हो पाया। Court ने कहा कि ऐसी परिस्थितियों में पहचान सिर्फ एक औपचारिकता बन जाती है, और उस प्रकार की TIP को विश्वसनीय नहीं माना जा सकता।
Supreme Court ने Bharatiya Sakshya Adhiniyam के सिद्धांतों का उल्लेख करते हुए कहा कि पहचान साक्ष्य हमेशा सावधानी से मूल्यांकित होना चाहिए। पहचान का उद्देश्य memory fidelity को परखना है, न कि गवाह को “suggest” करना कि कौन आरोपी है। जब ये सिद्धांत टूट जाते हैं, तो TIP की वैल्यू बहुत कमजोर हो जाती है, और अकेले dock identification पर आधारित conviction सुरक्षित नहीं मानी जा सकती। Court ने अंत में आरोपी को benefit of doubt देते हुए दोष-सिद्धि रद्द कर दी, और कहा कि prosecution अपनी जिम्मेदारी पूरी करने में विफल रहा।
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अंततः यह judgment फिर याद दिलाता है कि पुलिस को जांच के दौरान अत्यधिक सावधानी बरतनी चाहिए, गवाहों को प्रभावित न होने देना चाहिए, मीडिया exposure को नियंत्रित रखना चाहिए, और TIP को निष्पक्ष वातावरण में कराना चाहिए। यदि यह सब नहीं होता, तो TIP साक्ष्य खोखला हो जाता है और न्यायालय को संदेहपूर्ण पहचान के आधार पर किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता छीनने का कोई अधिकार नहीं रह जाता।
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