यह निर्णय विशेष रूप से इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि—
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मामला नूंह दंगों (2023) से संबंधित था
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आरोपी बैठे हुए विधायक (MLA) थे
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Trial Court ने MLA होने के आधार पर अलग चार्जशीट और अलग ट्रायल आदेशित किया था
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Supreme Court ने इसे गैर-कानूनी, मनमाना, और Article 21 का उल्लंघन माना
मामले की पृष्ठभूमि -नूंह (Nuh) में सांप्रदायिक हिंसा और FIRs-
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FIR No.149/2023
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FIR No.150/2023
दोनों मामलों में समान आरोप, समान गवाह, समान साक्ष्य, और एक साझा साजिश (conspiracy) का आरोप था।
मम्मन खान, जो फरोज़पुर झिरका विधानसभा के MLA हैं, को भी सह-आरोपी बनाया गया।
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Trial Court का विवादास्पद आदेश — पूरी व्याख्या
Trial Court के दो आदेश थे (28.08.2024 और 02.09.2024):
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MLA का मामला अलग करो
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अलग चार्जशीट दाखिल हो
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MLA का मामला day-to-day basis पर सुना जाए
समस्या थी: (1) यह आधार कानून में मौजूद ही नहीं था- CrPC/BNSS में MLA के लिए अलग प्रक्रिया का प्रावधान नहीं है।
(2) Segregation का आदेश बिना नोटिस, बिना सुनवाई दिया गया- यह natural justice के नियम audi alteram partem का उल्लंघन है।
(3) Trial Court ने अपने क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर पुलिस को आदेश दिया-पुलिस को अलग चार्जशीट दर्ज करने का निर्देश देना Court की शक्तियों से परे है।
(4) ऐसा आदेश न केवल अवैध बल्कि “maladministrative” था- Court ने कहा कि यह प्रक्रिया न तो कानूनन उचित थी और न ही न्याय संगत।
Supreme Court में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न था:
“क्या एक MLA के खिलाफ स्पीडी ट्रायल का हवाला देकर उसका ट्रायल बाकी आरोपियों से अलग किया जा सकता है?”
Supreme Court ने गहराई से विश्लेषण किया:
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क्या MLA को अलग ट्रायल देना “excessive privilege” होगा?
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क्या इससे गवाहों के बयान प्रभावित होंगे?
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क्या यह prosecution को फायदा देगा?
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क्या यह constitutional morality के अनुरूप है?
Court ने माना कि:
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Separate trial MLA होने की वजह से नहीं किया जा सकता
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ऐसा करना equality principle का उल्लंघन है
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यह एक तरह से arbitrary classification है
अतः Court ने इसे अस्वीकार कर दिया और कहा कि “political identity” का इस्तेमाल procedural classifications के लिए नहीं किया जा सकता।
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CrPC की मूल अवधारणा — Joint Trial Rule है या Exception?
Section 218 CrPC — अलग ट्रायल सामान्य नियम है लेकिन Section 223 CrPC — Joint Trial का स्पष्ट आधार अगर:
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अपराध एक ही transaction का हिस्सा हों,
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साक्ष्य समान हों,
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आरोपों में inter-linkage हो,
तो Joint Trial अनिवार्य होता है। Supreme Court ने कहा: “सभी आरोप एक ही transaction से जुड़े हैं। गवाह समान हैं। साक्ष्य समान हैं।इसलिए अलग-अलग ट्रायल न्याय के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है।”
Supreme Court द्वारा स्थापित मुख्य सिद्धांत
(1) MLA होने से कोई विशेष या अलग प्रक्रिया लागू नहीं होती Article 14 — Equality Before Law का उल्लंघन होगा।
(2) Fair Trial, Speedy Trial से बड़ा और मूल अधिकार है स्पीडी ट्रायल = प्रशासनिक लक्ष्य ,फेयर ट्रायल = संवैधानिक अधिकार, Court ने कहा: “Speedy trial का अर्थ procedural fairness को कुर्बान करना नहीं है।”
(3) एकतरफा (suo motu) तरीके से Trial अलग करना गैर-कानूनी है Trial Court ने बिना नोटिस, बिना सुनवाई आदेश दे दिया— SC ने कहा: यह Article 21 का उल्लंघन है।
(4) Separate Trial का आधार यह होना चाहिए कि: क्या संयुक्त ट्रायल से prejudice होगा? ,क्या इससे अनावश्यक delay होगा? लेकिन इस मामले में ऐसा कोई आधार नहीं था।
(5) पुलिस को अलग charge-sheet दाखिल करने का आदेश देना Trial Court की jurisdiction में नहीं है, Charge-sheet संबंधी निर्णय सिर्फ Investigating Agency का है।
(6) Joint Trial न होने से परिणाम:
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गवाहों की दोहरी परीक्षा
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विरोधाभासी बयान
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inconsistent judgments
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undue prejudice
Supreme Court द्वारा स्थापित विस्तृत सिद्धांत
Supreme Court ने अपने निर्णय में कई doctrinal principles स्थापित किए—
1. MLA होने से अलग ट्रायल का कोई औचित्य नहीं-Court ने कहा कि MLA की पहचान ट्रायल प्रक्रिया को प्रभावित नहीं कर सकती। कानून का उद्देश्य सभी नागरिकों के लिए समानता है।
2. Joint Trial का उद्देश्य है—साक्ष्य की एकरूपता और न्याय में सुसंगतता- Court ने बताया कि जहां evidence interlinked हो, उसे दो ट्रायल में बांटना “illogical and unjust” है।
3. Suo motu segregation असंवैधानिक है- Trial Court ने स्वयं आदेश देकर segregation कर दिया था— Supreme Court ने कहा: “यह natural justice का उल्लंघन है क्योंकि आरोपी को सुने बिना उसका अधिकार प्रभावित किया गया।”
4. Prejudice Test अनिवार्य है- कोई भी joint/separate trial तभी अनुमेय है जब Court यह संतुष्टि दर्ज करे कि:
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Accused को नुक़सान नहीं होगा,
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न ही यह trial process को धीमा करेगा।
5. Charge-sheet संबंधी दिशा-निर्देश Court नहीं दे सकता-Charge-sheet filed करना एक investigative function है— Court का इसमें direct आदेश देना न्याय प्रणाली में हस्तक्षेप होगा। इन सिद्धांतों ने भारतीय आपराधिक प्रक्रिया को और सुदृढ़ दिशा दी।
BNSS 2023 (Section 243) के दृष्टिकोण से विस्तारपूर्वक विश्लेषण
BNSS 2023 भारत के क्रिमिनल लॉ का नया ढांचा है, जिसने CrPC को प्रतिस्थापित किया है। हालांकि इसमें कई सुधार किए गए हैं, परंतु joint trial संबंधी प्रावधान लगभग CrPC के समान रखे गए हैं।
Section 243 BNSS कहता है कि यदि कई आरोप एक ही transaction का हिस्सा हों तो एक ही ट्रायल सर्वोत्तम है। यह अवधारणा तीन सिद्धांतों पर आधारित है:
(i) Judicial economy (न्यायिक संसाधनों का संरक्षण)- एक ही घटना में अलग-अलग ट्रायल होने से
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न्यायालय का समय
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संसाधन
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गवाहों की उपस्थितिसब दोगुने हो जाते हैं।
(ii) Conflicting judgments से बचाव- यदि अलग-अलग ट्रायल में दो अलग-अलग अदालतें बैठें, तो निर्णय परस्पर विरोधी हो सकते हैं।
(iii) Accused को Prejudice से बचाना- अलग-अलग ट्रायल में अभियोजन अपना evidence tailor कर सकता है—जो निष्पक्षता के खिलाफ है।
इसलिए BNSS भी “same transaction test” को मूल न्याय सिद्धांत का हिस्सा मानता है। Supreme Court का यह फैसला BNSS पर सीधे प्रभाव डालता है क्योंकि यह भविष्य में हजारों मामलों के लिए मार्गदर्शक बन जाएगा।
इस निर्णय की कानूनी महत्ता
यह फैसला भारत के Criminal Procedure Jurisprudence में एक Milestone है। निम्न बिंदुओं के कारण यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण बनता है:
(1) Joint Trial के सिद्धांत को Supreme Court द्वारा दोबारा सुदृढ़ किया गया- Court ने बताया कि जब आरोप, साक्ष्य, उद्देश्य और घटना का समय-स्थान समान हों, तब अलग-अलग ट्रायल कानून के विरुद्ध जाते हैं। यह सीधे Section 223 CrPC और Section 243 BNSS का पुनरीक्षण है।
(2) MLA होने से अलग ट्रायल नहीं हो सकता – Equality Before Law का पुन:प्रमाणीकरण- Article 14 के “equal protection of law” को सर्वोच्च माना गया। Supreme Court ने स्पष्ट कर दिया: “किसी भी सार्वजनिक प्रतिनिधि को विशेष प्रक्रिया नहीं दी जा सकती।”
(3) Speedy Trial बनाम Fair Trial—दोनों के बीच संतुलन की नई परिभाषा- इस निर्णय ने न्यायपालिका को दिशा दी कि Speedy Trial का लक्ष्य तभी पूरा है जब वह Fair Trial के साथ संतुलित हो।
(4) Trial Court के अधिकार क्षेत्र की स्पष्ट सीमा तय की गई- Trial Court पुलिस को निर्देश नहीं दे सकता कि— “अलग चार्जशीट दाखिल करो।” यह फैसला ट्रायल कोर्ट की powers को भी संतुलित करता है।
(5) यह निर्णय भविष्य की आपराधिक प्रक्रिया के लिए मार्गदर्शक (Precedent) बनेगा- अब हर मामला जिसमें ‘same transaction’ की बहस होगी—यह Judgment सबसे पहले उद्धृत किया जाएगा।
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समाज और न्याय तंत्र पर प्रभाव
Supreme Court का यह निर्णय केवल एक MLA के मामले तक सीमित नहीं है—इसके प्रभाव भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली पर सीधे पड़ते हैं। सबसे पहले, यह स्पष्ट करता है कि Speedy Trial की अवधारणा का गलत अर्थ नहीं निकाला जा सकता। राजनीतिक दबाव या प्रशासनिक सुविधा के नाम पर निष्पक्षता (Fairness) को कमजोर नहीं किया जा सकता।
इस निर्णय से समाज में यह संदेश जाता है कि—
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अदालतें राजनीतिक पहचान से ऊपर उठकर निर्णय करती हैं।
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न्याय केवल तेजी से नहीं, बल्कि सही तरीके से होना चाहिए।
सामाजिक दृष्टि से यह फैसला खास महत्व रखता है क्योंकि ऐसे मामलों में अक्सर जनता को लगता है कि प्रभावशाली व्यक्तियों को या तो फायदा मिलता है या नुकसान। इस निर्णय ने दोनों आशंकाओं को दूर कर दिया है। Court ने कहा—MLA होने से किसी को विशेषाधिकार भी नहीं मिलता और विशेष बोझ भी नहीं दिया जा सकता।यह निर्णय जांच एजेंसियों, अभियोजन और ट्रायल कोर्ट्स को भी याद दिलाता है कि वे प्रक्रिया में मनमानी या जल्दबाजी नहीं कर सकते। गवाहों की सुरक्षा, साक्ष्य की विश्वसनीयता, और मुकदमे के तार्किक प्रवाह को सुनिश्चित किए बिना अलग-अलग ट्रायल चलाना न्याय के मूल ढांचे को विकृत कर सकता है।इस प्रकार यह फैसला पूरे न्याय तंत्र को संतुलित करने वाला है—जो न केवल विधिक दृष्टिकोण से बल्कि सामाजिक विश्वास की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
Download Judgment: MAMMAN KHAN VERSUS STATE OF HARYANA
