आज सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा फैसला सुनाया है जिसने भारत की न्यायिक व्यवस्था, आम नागरिक के अधिकारों और सरकार–न्यायपालिका के संतुलन — तीनों पर गहरा प्रभाव डाल दिया है। Tribunal Reforms Act 2021, जिसे सरकार ने “प्रशासनिक सुधार” के रूप में पेश किया था, अब सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक घोषित कर दिया गया है। यह फैसला केवल कानून की भाषा में नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा में लिखा गया है। अदालत ने साफ कहा कि यह कानून न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमज़ोर करता था, और संविधान किसी भी ऐसी कोशिश को अनुमति नहीं देता।
सवाल यह नहीं है कि ट्रिब्यूनल्स कैसे चलेंगे, या सरकारी नियुक्तियाँ कैसी होंगी। असल मुद्दा यह है कि क्या न्याय वही करेगा जिसकी नियुक्ति और पुनर्नियुक्ति सरकार के हाथ में हो? अदालत ने एक बार फिर याद दिलाया कि न्यायपालिका सरकार का विभाग नहीं है, बल्कि सरकार को नियंत्रित करने वाली एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है। अगर ट्रिब्यूनल्स में बैठे जज जानते हों कि चार साल बाद उनकी नौकरी सरकार ही बढ़ाएगी, तो यह धारणा अपने-आप में न्यायिक स्वतंत्रता पर चोट है। न्याय डर में पैदा नहीं हो सकता। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने यह कानून खारिज कर दिया।
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2021 के Act की सबसे बड़ी समस्या यह थी कि यह ट्रिब्यूनल सदस्यों के कार्यकाल, नियुक्ति, उम्र, और चयन प्रक्रिया को सरकार की पकड़ में ले आता था। चयन समिति की सिफारिश बदलने की शक्ति सरकार को दी गई थी — यह बात अपने आप में अदालत को यह समझाने के लिए काफी थी कि यह कानून कार्यपालिका को न्यायपालिका पर हावी करने की कोशिश है। अदालत ने पहले भी कई बार कहा था कि ट्रिब्यूनल्स न्यायपालिका का विस्तार हैं, न कि किसी मंत्रालय के अधीन कार्यालय। फिर भी सरकार ने उन्हीं प्रावधानों को दोहराने की कोशिश की जिन्हें सुप्रीम कोर्ट पहले रद्द कर चुका था। आज के फैसले ने इस लगातार टकराव को खत्म करते हुए कानून को पूरी तरह निरस्त कर दिया।
इस फैसले का असर केवल कानूनी दुनिया में ही नहीं, बल्कि आम आदमी के मामलों में भी दिखेगा। एक छोटा व्यापारी जो DRT में बैंक विवाद लेकर जाता है, एक टैक्सपेयर जो ITAT में अपील करता है, या एक किसान जिसके गांव में प्रदूषण के खिलाफ NGT में सुनवाई चलती है — ऐसे हर व्यक्ति के लिए यह फैसला राहत है। क्योंकि अब वे जानते हैं कि जिस ट्रिब्यूनल में उनका मामला चल रहा है, वहाँ बैठा जज शासन के दबाव से मुक्त है। वही स्वतंत्रता निष्पक्ष न्याय का आधार है।
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कल्पना कीजिए, अगर किसी फैक्ट्री के खिलाफ गांव का एक व्यक्ति पर्यावरण मामला दाखिल करता और उस मामले को सुनने वाला NGT का सदस्य किसी मंत्री या मंत्रालय पर अपनी पुनर्नियुक्ति के लिए निर्भर हो — तो क्या वह स्वतंत्र रूप से फैक्ट्री के खिलाफ आदेश दे पाता? या फिर अगर किसी किसान पर बैंक गलत वसूली लगा दे, और DRT का जज सरकारी बैंक के असंतोष के डर से निर्णय दे — तो न्याय की उम्मीद किससे की जा सकती है? सुप्रीम कोर्ट ने इसी जोखिम को देखते हुए कहा कि ट्रिब्यूनल्स सरकार के अधीन होंगे तो न्याय कमजोर होगा, और न्याय कमजोर हुआ तो संविधान का ढांचा भी कमजोर हो जाएगा।
अदालत ने अपने निर्णय में संविधान के Article 14 (समानता का अधिकार) और Article 50 (न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखना) की विशेष रूप से व्याख्या की। अदालत ने कहा कि नियुक्ति, कार्यकाल और नियंत्रण—all three—यदि सरकार के हाथ में होंगे, तो यह संरचना असमानता पैदा करेगी और न्यायपालिका को प्रशासनिक दबाव में लेकर जाएगी। और जब एक कानून संविधान की मूल संरचना को छूता है, तो वह स्वतः असंवैधानिक हो जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर “Basic Structure Doctrine” को लागू करते हुए कहा कि Judicial Independence संविधान की आत्मा है, और इसे किसी भी संसद या सरकार द्वारा कमज़ोर नहीं किया जा सकता।
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यह फैसला ट्रिब्यूनल्स के भविष्य को भी स्पष्ट करता है। अब 2021 से पहले लागू नियम वापस प्रभावी होंगे। नियुक्तियों में सरकार की ‘अंतिम मंजूरी’ की शक्ति नहीं रहेगी। चयन समिति, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के जज शामिल होते हैं, वही अंतिम प्राधिकार मानी जाएगी। इससे नियुक्तियों में पारदर्शिता बढ़ेगी और लंबित मामलों को तेज सुनवाई का रास्ता मिलेगा। देश में NCLT, NGT, ITAT, DRT जैसे लगभग सभी ट्रिब्यूनल्स में हजारों–लाखों मामले पेंडिंग हैं। इस फैसले के बाद उम्मीद की जा रही है कि नियुक्तियाँ तेज होंगी और मामलों का निपटारा तेजी से होगा।
लोकतंत्र में न्यायपालिका की भूमिका केवल फैसले सुनाने तक सीमित नहीं है। वह नागरिक को यह भरोसा भी देती है कि कानून आपके साथ खड़ा है, चाहे सरकार कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो। आज का फैसला इस भरोसे को मजबूत करता है। Court ने बहुत साफ शब्दों में कहा कि कार्यपालिका को ट्रिब्यूनल्स के ऊपर नियंत्रण देना मतलब उस संस्था को कमजोर करना है जिसका मकसद ही कार्यपालिका की कार्रवाई की समीक्षा करना है। यानी सरकार खुद के खिलाफ बैठने वाले जज का चयन और नियंत्रण रखे — यह लोकतंत्र में संभव नहीं है।
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इस फैसले का एक गहरा संदेश है: भारत में न्यायपालिका आज भी स्वतंत्र है और सरकार की इच्छा के अनुरूप अपने सिद्धांत नहीं बदलती। यह संदेश उन सभी नागरिकों के लिए आश्वासन है जो किसी न किसी मंच पर न्याय की तलाश में जाते हैं। चाहे वह टैक्स विवाद हो, बैंकिंग विवाद हो, कंपनियों की दिवालिया प्रक्रिया हो, पर्यावरण मामले हों या सेवा से जुड़े विवाद — अब यह विश्वास और मजबूत हुआ है कि ट्रिब्यूनल्स निष्पक्ष रहेंगे।
जो लोग यह सोचते थे कि यह एक प्रशासनिक कानून है और आम नागरिक को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता — आज का फैसला उन्हें याद दिलाता है कि न्यायिक स्वतंत्रता वही ढाल है जो आम आदमी को गलत फैसलों, पक्षपात और सरकारी ताकत के दुरुपयोग से बचाती है। सुप्रीम कोर्ट ने इस ढाल को और मजबूत किया है।
