भारत में श्रम कानूनों को लेकर एक बात हमेशा कही जाती रही है — “हमारे मजदूरों की सुरक्षा कागज़ों पर मजबूत है, लेकिन जमीन पर कमजोर।” यह बात कई दशक पुरानी है और सरकारें बदलती रहीं, लेकिन स्थिति में बहुत बड़ा सुधार दिखाई नहीं दिया। भारतीय श्रम कानून इतने जटिल और बिखरे हुए थे कि नियोक्ता और कर्मचारी दोनों के लिए ही यह पूरे सिस्टम को समझना चुनौतीपूर्ण था। इसी पृष्ठभूमि में भारत सरकार द्वारा लाए गए Four Labour Codes को एक बड़े परिवर्तन की तरह देखा जा रहा है।
कई लोग कह रहे हैं कि ये सुधार भारत को एक नई आर्थिक दिशा देंगे, वहीं कुछ लोग इसे मजदूरों के अधिकार कमजोर करने वाली नीति मानते हैं। लेकिन असल सवाल यह है कि ये बदलाव वास्तव में किसके लिए है — औद्योगिक विकास के लिए या श्रमिक हितों के लिए — या फिर यह दोनों के बीच संतुलन बनाने का प्रयास है?
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इन चार श्रम संहिताओं का निर्माण कोई अचानक लिया गया राजनीतिक निर्णय नहीं था। यह एक लंबी प्रक्रिया थी, जिसमें उद्योग, ट्रेड यूनियन, नीति शोध संस्थान, नियोक्ता संगठन, अंतरराष्ट्रीय श्रम मानक और अदालतों की टिप्पणियाँ सब शामिल थीं। लंबे समय से यह सवाल था कि क्या भारत का labour market modern economy की जरूरतों के अनुसार तैयार है? जब दुनिया global supply chain, AI-based workforce management और gig working model की तरफ बढ़ रही है, क्या भारत अभी भी 1940-1950 के श्रम कानूनों के साथ आगे बढ़ सकता है?
शायद यही कारण था कि सरकार ने 29 अलग-अलग कानूनों को हटाकर, उन्हें चार व्यापक और समेकित कोड्स में बदलने का निर्णय लिया — Wages Code, Social Security Code, Industrial Relations Code और Occupational Safety, Health & Working Conditions Code.
इन कोड्स को बनाते समय तीन मुख्य उद्देश्यों को सामने रखा गया:
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कानूनों को सरल बनाया जाए।
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व्यवसायों के लिए Compliance आसान हो।
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श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा और सम्मान मिले।
और शायद पहली बार किसी नीति में gig workers और platform workers को कानून में पहचान दी गई, जो वास्तव में भारत की workforce का तेजी से बढ़ता हिस्सा हैं। आज अगर आप food order करते हैं, taxi बुक करते हैं या घर पर grocery मंगवाते हैं — तो ये सेवाएँ आप तक पहुँचाने वाले लाखों workers पहले कानून की नजर में “कर्मचारी” ही नहीं थे, केवल सेवा प्रदाता थे। उनके पास न तो काम की गारंटी थी, न health cover, न accident insurance और न PF का हक।
Social Security Code ने पहली बार उन्हें एक legal identity दी, जिसे कई श्रम विशेषज्ञ एक ऐतिहासिक कदम कह रहे हैं।
लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती। हर सुधार के साथ बहस भी आती है — और उस बहस के दोनों पक्ष मजबूत हैं। ट्रेड यूनियनों का मानना है कि इन कोड्स के जरिए कर्मचारी सुरक्षा कम होगी और retrenchment (छंटनी) आसान बनेगी। जबकि उद्योग जगत का कहना है कि लम्बे समय तक rigid labour laws के कारण भारत manufacturing hub नहीं बन पाया, खासकर चीन, वियतनाम और बांग्लादेश जैसे देशों की तुलना में।
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एक वास्तविक उदाहरण देखें। मान लीजिए दिल्ली में एक फैक्ट्री मालिक 300 कर्मचारियों के साथ काम कर रहा है। पुराने कानूनों में उसे छोटी गलती के लिए भी दर्जनों फॉर्म भरने पड़ते थे — अलग-अलग अधिकारियों को रिपोर्ट देनी होती थी। और अगर व्यापार किसी कारण से घाटे में चला जाए, तो कर्मचारियों की छंटनी या restructuring लगभग असंभव हो जाती थी। इससे उद्योग बढ़ने से डरता था — और यही डर informal hiring और contract labour system को बढ़ाता था।
कोड्स के समर्थकों का कहना है कि compliance कम होगा तो formal sector बढ़ेगा। और यदि formal jobs बढ़ेंगी तो सामाजिक सुरक्षा का दायरा बढ़ेगा। वहीं आलोचकों का कहना है कि “flexibility” का मतलब worker rights को कमजोर करना है।
इस बहस में सच कहीं बीच में है।
इन कोड्स को समझने के लिए यह याद रखना जरूरी है कि भारत की workforce कई परतों में बटी हुई है — formal employee, contract worker, migrant worker, gig worker, self-employed और informal labour। इन सभी के लिए एक ही समान framework बनाना बहुत आसान नहीं है। उदाहरण के लिए एक factory worker को minimum wages, PF और safety standards मिलते हैं — लेकिन वही अधिकार एक domestic worker, एक municipal sanitation worker या gig worker को नहीं मिलते। यह असमानता न केवल आर्थिक बल्कि सामाजिक भी है।
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इसी अंतर को कम करने की कोशिश इन कोड्स में की गई है।
लेकिन एक बात और समझनी होगी — सिर्फ कानून बन जाने से व्यवस्था नहीं बदलती। भारत में labour compliance system में corruption हमेशा एक कड़वी वास्तविकता रही है। कई छोटे व्यवसाय आज भी कहते हैं कि वे कानून का पालन करने के लिए तैयार हैं — लेकिन ₹5000 से ₹50,000 तक की “informal inspection fee” उन्हें प्रणाली से दूर कर देती है। अगर नए कोड्स digital compliance, single registration और random audit model को सफलतापूर्वक लागू करते हैं, तो यह बदलाव वास्तविक हो सकता है।
यहाँ अदालतों की भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी। कई मामलों में न्यायपालिका ने यह स्पष्ट किया है कि labour reform का अर्थ workers की dignity और safety का समझौता करना नहीं है। Indian courts बार-बार यह दोहरा चुके हैं कि Article 21 यानी जीवन का अधिकार केवल “जीवित रहने का अधिकार” नहीं बल्कि सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार है। और इस अधिकार के दायरे में workplace dignity, equal treatment और social protection आते हैं।
अगर यह कोड्स इस संवैधानिक दृष्टिकोण के साथ लागू किए जाते हैं तो ये भारत के श्रमिक इतिहास में एक बड़ा परिवर्तन साबित हो सकते हैं। लेकिन अगर इन्हें केवल industrial flexibility और FDI बढ़ाने के नजरिए से लागू किया गया, तो यह मजदूरों के हितों को कमजोर भी कर सकते हैं।
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अब सवाल यह भी है कि इन कोड्स से आम भारतीय पर क्या असर पड़ेगा? इसका उत्तर अलग-अलग वर्गों के लिए अलग है।
एक factory worker के लिए इसका अर्थ होगा — regulated working hours, minimum wages protection और safety norms।
एक gig worker के लिए इसका अर्थ होगा — पहली बार कानून की नजर में पहचान और welfare fund की संभावना।
एक employer के लिए इसका अर्थ होगा — compliance burden में कमी और hiring-firing में flexibility।
एक migrant worker के लिए इसका अर्थ होगा — portability of rights यानी वह जहाँ भी काम करे, उसको digital identity के आधार पर लाभ मिल सके।
लेकिन ये सारे “इच्छित परिणाम” तब ही संभव हैं जब राज्यों की भूमिका मजबूत हो, digital infrastructure कारगर हो और awareness ground level तक पहुँचे।
इसीलिए आज यह भले ही भारत की labour reform journey का एक बड़ा कदम दिख रहा है, लेकिन यह journey अभी पूरी नहीं हुई है। यह एक प्रारंभ है — और जैसा कि किसी भी सार्वजनिक नीति के साथ होता है, इसका वास्तविक प्रभाव आने वाले वर्षों में ही दिखाई देगा।
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अंत में यह कहा जा सकता है कि Four Labour Codes केवल कानून नहीं हैं — यह भारत की workforce के भविष्य का नक्शा हैं। यह भारत को एक ऐसे labour ecosystem की तरफ ले जा सकते हैं जहाँ dignity और development साथ-साथ चलें। लेकिन इसके लिए सरकार, उद्योग, मजदूर संगठन, न्यायपालिका और समाज — सभी को यह स्वीकार करना होगा कि श्रम केवल आर्थिक विषय नहीं है, यह मानव अधिकार और सामाजिक न्याय का विषय भी है।
और जब ये दोनों दृष्टिकोण एक साथ मिलते हैं — तभी transformation संभव होता है।
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